श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 25-37

तृतीय स्कन्ध: षोडश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 25-37 का हिन्दी अनुवाद


सर्वेश्वर! इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझें वैसा दण्ड दें अथवा पुरस्कार रूप में इनकी वृत्ति बढ़ा दें-हम निष्कपट भाव से सब प्रकार आपसे सहमत हैं अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरों को शाप दिया है, इसके लिये हमीं को उचित दण्ड दें; हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है।

श्रीभगवान् ने कहा- मुनिगण! आपने इन्हें जो शाप दिया है-सच जानिये, वह मेरी ही प्रेरणा से हुआ है। अब ये शीघ्र ही दैत्ययोनि को प्राप्त होंगे और वहाँ क्रोधावेश से बढ़ी हुई एकाग्रता के कारण सुदृढ़ योग सम्पन्न होकर फिर जल्दी ही मेरे पास लौट आयेंगे।

श्रीब्रह्मा जी कहते हैं- तदनन्तर उन मुनीश्वरों ने नयनाभिराम भगवान् विष्णु और उनके स्वयंप्रकाश वैकुण्ठधाम के दर्शन करके प्रभु की परिक्रमा की और उन्हें प्रणाम कर तथा उनकी आज्ञा पा भगवान् के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए प्रमुदित हो वहाँ से लौट गये। फिर भगवान् ने अपने अनुचरों से कहा, ‘जाओ, मन में किसी प्रकार का भय मत करो; तुम्हारा कल्याण होगा। मैं सब कुछ करने में समर्थ होकर भी ब्रह्मतेज को मिटाना नहीं चाहता; क्योंकि ऐसा ही मुझे अभिमत भी है।

एक बार जब मैं योगनिद्रा में स्थित हो गया था, तब तुमने द्वार में प्रवेश करती हुई लक्ष्मी जी को रोका था। उस समय उन्होंने क्रुद्ध होकर पहले ही तुम्हें यह शाप दे दिया था। अब दैत्ययोनि में मेरे प्रति क्रोधाकार वृत्ति रहने से तुम्हें जो एकाग्रता होगी, उससे तुम इस विप्र-तिरस्कारजनित पाप से मुक्त हो जाओगे और फिर थोड़े ही समय में मेरे पास लौट आओगे।

द्वारपालों को इस प्रकार आज्ञा दे, भगवान् ने विमानों की श्रेणियों से सुसज्जित अपने सर्वादिक श्रीसम्पन्न धाम में प्रवेश किया। वे देवश्रेष्ठ जय-विजय तो ब्रह्मशाप के कारण उस अलंघनीय भगवद्धाम में ही श्रीहीन हो गये तथा उनका सारा गर्व गलित हो गया।

पुत्रों! फिर जब वे वैकुण्ठलोक से गिरने लगे, तब वहाँ श्रेष्ठ विमानों पर बैठे हुए वैकुण्ठवासियों में महान् हाहाकार मच गया। इस समय दिति के गर्भ में स्थित जो कश्यप जी का उग्र तेज है, उसमें भगवान् के उन पार्षद प्रवरों ने ही प्रवेश किया है। उन दोनों असुरों के तेज से ही तुम सबका तेज फीका पड़ गया है। इस समय भगवान् ऐसा ही करना चाहते हैं, जो आदिपुरुष संसार की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं, जिनकी योगमाया को बड़े-बड़े योगिजन भी बड़ी कठिनता से पार पाते हैं-वे सत्त्वादि तीनों गुणों के नियन्ता श्रीहरि ही हमारा कल्याण करेंगे। अब इस विषय में हमारे विशेष विचार करने से क्या लाभ हो सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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