श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 16-27

चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद


उसका धीरज टूट गया। वह दावानल से जली हुई बेल के समान शोक से सन्तप्त होकर मुरझा गयी तथा विलाप करने लगी। सौत की बातें याद आने से उसके कमल-सरीखे नेत्रों ने आँसू भर आये। उस बेचारी को अपने दुःखपारावार का कहीं अन्त ही नहीं दिखायी देता था। उसने गहरी साँस लेकर ध्रुव से कहा, ‘बेटा! तू दूसरों के लिये किसी प्रकार के अमंगल की कामना मत कर। जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है। सुरुचि ने जो कुछ कहा है, ठीक ही है; क्योंकि महाराज को मुझे ‘पत्नी’ तो क्या, ‘दासी’ स्वीकार करने में भी लज्जा आती है। तूने मुझ मन्दभागिनी के गर्भ से ही जन्म लिया है और मेरे ही दूध से तू पला है।

बेटा! सुरुचि ने तेरी सौतेली माँ होने पर भी बात बिलकुल ठीक कही है; अतः यदि राजकुमार उत्तम के समान राजसिंहासन पर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोड़कर उसी का पालन कर। बस, श्रीअधोयक्षज भगवान् के चरणकमलों की आराधना में लग जा। संसार का पालन करने के लिये सत्त्वगुण को अंगीकार करने वाले उन श्रीहरि के चरणों की आराधना करने से ही तेरे परदादा श्रीब्रह्माजी को वह सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त हुआ है, जो मन और प्राणों को जीतने वाले मुनियों के द्वारा भी वन्दनीय है। इसी प्रकार तेरे दादा स्वयंभुव मनु ने भी बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों के द्वारा अनन्यभाव से उन्हीं भगवान् की आराधना की थी; तभी उन्हें दूसरों के लिये अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्षसुख की प्राप्ति हुई। ‘बेटा! तू भी उन भक्तवत्सल श्रीभगवान् का ही आश्रय ले। जन्म-मृत्यु के चक्र से छूटने की इच्छा करने वाले मुमुक्ष लोग निरन्तर उन्हीं के चरणकमलों के मार्ग की खोज किया करते हैं। तू स्वधर्मपालन से पवित्र हुए अपने चित्त में श्रीपुरुषोत्तम भगवान् को बैठा ले तथा अन्य सबका चिन्तन छोड़कर केवल उन्हीं का भजन कर। बेटा! उन कमल-दल-लोचन श्रीहरि को छोड़कर मुझे तो तेरे दुःख को दूर करने वाला और कोई दिखायी नहीं देता। देख, जिन्हें प्रसन्न करने के लिये ब्रह्मा आदि अन्य सब देवता ढूँढ़ते रहते हैं, वे श्रीलक्ष्मी जी भी दीपक की भाँति हाथ में कमल किये निरन्तर उन्हीं श्रीहरि की खोज किया करती हैं’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- माता सुनीति ने जो वचन कहे, वे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का मार्ग दिखलाने वाले थे। अतः उन्हें सुनकर ध्रुव ने बुद्धि द्वारा अपने चित्त का समाधान किया। इसके बाद वे पिता के नगर से निकल पड़े। यह सब समाचार सुनकर और ध्रुव क्या करना चाहता है, इस बात को जानकर नारद जी वहाँ आये। उन्होंने ध्रुव के मस्तक पर अपना पापनाशक कर-कमल फेरते हुए मन-ही-मन विस्मित होकर कहा। ‘अहो! क्षत्रियों का कैसा अद्भुत तेज है, वे थोड़ा-सा भी मान-भंग नहीं सह सकते। देखो, अभी तो यह नन्हा-सा बच्चा है; तो भी इसके हृदय में सौतेली माता के कटु वचन घर कर गये हैं’।

तत्पश्चात् नारद जी ने ध्रुव से कहा- बेटा! अभी तो तू बच्चा है, खेल-कूद में ही मस्त रहता है; हम नहीं समझते कि इस उम्र में किसी बात से तेरा सम्मान या अपमान हो सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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