श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 16-27

चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद


राजन्! तुम्हारे गुणों ने और स्वभाव ने मुझको वश में कर लिया है। अतः तुम्हे जो इच्छा हो, मुझसे वर माँग लो। उन क्षमा आदि गुणों से रहित यज्ञ, तप अथवा योग के द्वारा मुझको पाना सरल नहीं है, मैं तो उन्हीं के हृदय में रहता हूँ जिनके चित्त में समता रहती है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! सर्वलोकगुरु श्रीहरि के इस प्रकार कहने पर जगद्विजयी महाराज पृथु ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की

देवराज इन्द्र अपने कर्म से लज्जित होकर उनके चरणों पर गिरना ही चाहते थे कि राजा ने उन्हें प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया और मनोमालिन्य निकाल दिया। फिर महाराज पृथु ने विश्वात्मा भक्तवत्सल भगवान् का पूजन किया और क्षण-क्षण में उमड़ते हुए भक्तिभाव में निमग्न होकर प्रभु के चरणकमल पकड़ लिये। श्रीहरि वहाँ से जाना चाहते थे; किन्तु पृथु के प्रति जो उनका वात्सल्यभाव था, उसने उन्हें रोक लिया। वे अपने कमलदल के समान नेत्रों से उनकी ओर देखते ही रह गये, वहाँ से जा न सके।

आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रों में जल भर आने के कारण न तो भगवान् का दर्शन ही कर सके और न तो कण्ठ गद्गद हो जाने से कुछ बोल ही सके। उन्हें हृदय से आलिगन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये। प्रभु अपने चरणकमलों से पृथ्वी को स्पर्श किये खड़े थे; उनका कराग्रभाग गरुड़ जी के ऊँचे कंधे पर रखा हुआ था। महाराज पृथु नेत्रों के आँसू पोंछकर अतृप्त दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहने लगे।

महाराज पृथु बोले- मोक्षपति प्रभो! आप वर देने वाले ब्रह्मादि देवताओं को भी वर देने में समर्थ हैं। कोई भी बुद्धिमान् पुरुष आपसे देहाभिमानियों के भोगने योग्य विषयों को कैसे माँग सकता है? वे तो नारकी जीवों को भी मिलते ही हैं। अतः मैं इन तुच्छ विषयों को आपसे नहीं माँगता। मुझे तो उस मोक्षपद की भी इच्छा नहीं है, जिसमें महापुरुषों के हृदय से उनके मुख द्वारा निकला हुआ आपके चरणकमलों का मकरन्द नहीं है-जहाँ आपकी कीर्ति-कथा सुनने का सुख नहीं मिलता। इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपके लीलागुणों को सुनता ही रहूँ।

पुण्यकीर्ति प्रभो! आपके चरणकमल-मकरन्दरूपी अमृत-कणों को लेकर महापुरुषों के मुख से जो वायु निकलती है, उसी में इतनी शक्ति होती है कि वह तत्त्व को भूले हुए हम कुयोगियों को पुनः तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमें दूसरे वरों की कोई आवश्यकता नहीं है।

उत्तम कीर्ति वाले प्रभो! सत्संग में आपके मंगलमय सुयश को दैववश एक बार भी सुन लेने पर कोई पशुबुद्धिपुरुष भले ही तृप्त हो जाये; गुणग्राही उसे कैसे छोड़ सकता है? सब प्रकार के पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये स्वयं लक्ष्मी जी भी आपके सुयश को सुनना चाहती हैं। अब लक्ष्मी जी के समान मैं भी अत्यन्त उत्सुकता से आप सर्वगुणधाम पुरुषोत्तम की सेवा ही करना चाहता हूँ। किन्तु ऐसा न हो कि एक ही पति की सेवा प्राप्त करने की होड़ होने के कारण आपके चरणों में ही मन को एकाग्र करने वाले हम दोनों में कलह छिड़ जाये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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