श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 21-38

चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद


विदुर जी ने पूछा- ब्रह्मन्! महाराज अंग तो बड़े शीलसम्पन्न, साधुस्वभाव, ब्राह्मण-भक्त और महात्मा थे। उनके वेन जैसा दुष्ट पुत्र कैसे हुआ, जिसके कारण दुःखी होकर उन्हें नगर छोड़ना पड़ा। राजदण्डधारी वेन का भी ऐसा क्या अपराध था, जो धर्मज्ञ मुनीश्वरों ने उसके प्रति शापरूप ब्रह्मदण्ड का प्रयोग किया। प्रजा का कर्तव्य है कि वह प्रजापालक राजा से कोई पाप बन जाये तो भी उसका तिरस्कार न करे; क्योंकि वह अपने प्रभाव से आठ लोकपालों के तेज को धारण करता है। ब्रह्मन्! आप भूत-भविष्य की बातें जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं, इसलिये आप मुझे सुनीथा के पुत्र वेन की सब करतूतें सुनाइये। मैं आपका श्रद्धालु भक्त हूँ।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! एक बार राजर्षि अंग ने अश्वमेध महायज्ञ का अनुष्ठान किया। उसमें वेदवादी ब्राह्मणों के आवाहन करने पर भी देवता लोग अपना भाग लेने नहीं आये। तब ऋत्विजों ने विस्मित होकर यजमान अंग से कहा- ‘राजन्! हम आहुतियों के रूप में आपका जो घृत आदि पदार्थ हवन कर रहे हैं, उसे देवता लोग स्वीकार नहीं करते। हम जानते हैं आपकी होम-सामग्री दूषित नहीं है; आपने उसे बड़ी श्रद्धा से जुटाया है तथा वेदमन्त्र भी किसी प्रकार बलहीन नहीं हैं; क्योंकि उनका प्रयोग करने वाले ऋत्विज् गण याजकोचित सभी नियमों का पूर्णतया पालन करते हैं। हमें ऐसी कोई बात नहीं दीखती कि इस यज्ञ में देवताओं का किंचित् भी तिरस्कार हुआ है- फिर भी कर्माध्यक्ष देवता लोग क्यों अपना भाग नहीं ले रहे हैं?

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- ऋत्विजों की बात सुनकर यजमान अंग बहुत उदास हुए। तब उन्होंने याजकों की अनुमति से मौन तोड़कर सदस्यों से पूछा। ‘सदस्यों! देवता लोग आवाहन करने पर भी यज्ञ में नहीं आ रहे हैं और न सोमपात्र ही ग्रहण करते हैं; आप बतलाइये मुझसे ऐसा क्या अपराध हुआ है?

सदस्यों ने कहा- राजन्! इस जन्म में तो आपसे तनिक भी अपराध नहीं हुआ; हाँ पूर्वजन्म का एक अपराध अवश्य है, जिसके कारण आप ऐसे सर्वगुण-सम्पन्न होने पर भी पुत्रहीन हैं। आपका कल्याण हो! इसलिये पहले आप सुपुत्र प्राप्त करने का कोई उपाय कीजिये। यदि आप पुत्र की कामना से यज्ञ करेंगे, तो भगवान् यज्ञेश्वर आपको अवश्य पुत्र प्रदान करेंगे। जब सन्तान के लिये साक्षात् यज्ञपुरुष श्रीहरि का आवाहन किया जायेगा, तब देवता लोग स्वयं ही अपना-अपना यज्ञ-भाग ग्रहण करेंगे। भक्त जिस-जिस वस्तु की इच्छा करता है, श्रीहरि उसे वही-वही पदार्थ देते है। उनकी जिस प्रकार आराधना की जाती है उसी प्रकार उपासक को फल भी मिलता है।

इस प्रकार राजा अंग को पुत्र प्राप्ति कराने का निश्चय कर ऋत्विजों ने पशु में यज्ञरूप से रहने वाले श्रीविष्णु भगवान् के पूजन के लिये पुरोडश नामक चरु समर्पण किया। अग्नि में आहुति डालते ही अग्निकुण्ड से सोने के हार और शुभ्र वस्त्रों से विभूषित एक पुरुष प्रकट हुए; वे एक स्वर्णपात्र में सिद्ध खीर लिये हुए थे। उदार बुद्धि राजा अंग ने याजकों की अनुमति से अपनी अंजलि में वह खीर ले ली और उसे स्वयं सूँघकर प्रसन्नतापूर्वक अपनी पत्नी को दे दिया। पुत्रहीना रानी ने वह पुत्रप्रदायिनी खीर खाकर अपने पति के सहवास से गर्भ धारण किया। उससे यथा समय उसके एक पुत्र हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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