श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 38-44

एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय श्लोक 38-44 का हिन्दी अनुवाद


पृथ्वी के ही विकार पर्वत और वृक्ष से मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएँ सदा-सर्वदा दूसरों के हित के लिये ही होती हैं, बल्कि यों कहना चाहिये कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरों का हित करने के लिये ही हुआ है, साधु पुरुष को चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे।

मैंने शरीर के भीतर रहने वाले वायु-प्राणवायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहार मात्र की इच्छा रखता है और उसकी प्राप्ति से ही सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधक को भी चाहिये कि जितने से जीवन-निर्वाह हो जाये, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये बहुत-से विषय न चाहे। संक्षेप में उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिये, जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चंचल न हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लग जाये। शरीर के बाहर रहने वाले वायु से मैंने यह सीखा है कि जैसे वायु को अनेक स्थानों में जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसी का भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होने पर विभिन्न प्रकार के धर्म और स्वभाव वाले विषयों में जाये, परन्तु अपने लक्ष्य पर स्थिर रहे। किसी के गुण या दोष की ओर झुक न जाये, किसी से आसक्ति या द्वेष न कर बैठे। गन्ध वायु का गुण नहीं, पृथ्वी का गुण है। परन्तु वायु को गन्ध का वहन करना पड़ता है। ऐसा करने पर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्ध से उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधन का जब तक इस पार्थिव शरीर से सम्बन्ध है, तब तक उसे इसकी व्याधि-पीड़ा और भूख-प्यास आदि का भी वहन करना पड़ता है। परन्तु अपने को शरीर नहीं, आत्मा के रूप में देखने वाला साधक शरीर और उसके गुणों का आश्रय होने पर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है।

राजन्! जितने भी घट-मठ आदि पदार्थ हैं, वे चाहे चल हों या अचल, उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होने पर भी वास्तव में आकाश एक और अपरिच्छिन्न (अखण्ड) ही है। वैसे ही चर-अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, उनमें आत्मरूप से सर्वत्र स्थित होने के कारण ब्रह्म सभी में हैं। साधक को चाहिये कि सूत के मणियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असंगरूप से देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। इसलिए साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिये। आग लगती है, पानी बरसता है, अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं, वायु की प्रेरणा से बादल आदि आते और चले जाते हैं; यह सब होने पर भी आकाश अछूता रहता है। आकाश की दृष्टि से यह सब कुछ है ही नहीं। इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य के चक्कर में जाने किन-किन नाम रूपों की सृष्टि और प्रलय होते हैं; परन्तु आत्मा के साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है। जिस प्रकार जल स्वभाव से ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करने वाला होता है तथा गंगा आदि तीर्थों के दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं-वैसे ही साधक को भी स्वभाव से शुद्ध, स्निग्ध, मधुरभाषी और लोक पावन होना चाहीये। जल से शिक्षा ग्रहण करने वाला अपने दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से लोगों को पवित्र कर देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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