एकादश स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 16-24 का हिन्दी अनुवाद
उपासक पहले पूजा की सामग्री इकट्ठी कर ले। फिर इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्व की ओर रहें। तदनन्तर पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके पवित्रता से उन कुशों के आसन पर बैठ जाये। यदि प्रतिमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चाहिये। इसके बाद पूजा कार्य प्रारम्भ करे। पहले विधिपूर्वक अंगन्यास और करन्यास कर ले। इसके बाद मूर्ति में मन्त्रन्यास करे और हाथ से प्रतिमा पर से पूर्वसमर्पित सामग्री हटाकर उसे पोंछ दे। इसके बाद जल से भरे हुए कलश और प्रोक्षण पात्र आदि की पूजा गन्ध-पुष्प आदि से करे। प्रोक्षणपात्र के जल से पूजा सामग्री और अपने शरीर का प्रोक्षण कर ले। तदनन्तर पाद्य, अर्ध्य और आचमन के लिये तीन पात्रों में कलश में से जल भरकर रख ले और उसमें पूजा-पद्धति के अनुसार सामग्री डाले। (पाद्यपात्र में श्यामक-साँवे के दाने, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता और चन्दन, तुलसीदल आदि; अर्घ्यपात्र में गन्ध, पुष्प, अक्षत, जौ, कुश, तिल, सरसों और दूब तथा आचमन पात्र में जायफल, लौंग आदि डाले।) इसके बाद पूजा करने वाले को चाहिये कि तीनों पात्रों को क्रमशः हृदयमन्त्र, शिरोमन्त्र और शिखामन्त्र से अभिमन्त्रित करके अन्त में गायत्री मन्त्र से तीनों को अभिमन्त्रित करे। इसके बाद प्राणायाम के द्वारा प्राण-वायु और भावनाओं द्वारा शरीरस्थ अग्नि के शुद्ध हो जाने पर हृदयकमल में परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखा के समान मेरी जीव कला का ध्यान करे। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि-मुनि ॐकार के अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद-इन पाँच कलाओं के अन्त में उसी जीवकला का ध्यान करते हैं। वह जीवकला आत्मस्वरूपिणी है। जब उसके तेज से सारा अन्तःकरण और शरीर भर जाये तब मानसिक उपचारों से मन-ही-मन उसकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदि में स्थापना करे। फिर मन्त्रों के द्वारा अंगन्यास करके उसमें मेरी पूजा करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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