श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 50-56

एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय श्लोक 50-56 का हिन्दी अनुवाद


साधारणतः मनुष्यों की बुद्धि अंधी हो रही है। तभी तो वे इस मनःकल्पित शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और फिर इस भ्रम के फंदे में फँस जाते हैं कि ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा।’ इसका परिणाम यह होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकार में ही भटकते रहते हैं। यदि मान लें कि मनुष्य ही सुख-दुःख का कारण है, तो भी उनसे आत्मा का क्या सम्बन्ध? क्योंकि सुख-दुःख पहुँचाने वाला भी मिट्टी का शरीर है और भोगने वाला भी। कभी भोजन आदि के समय यदि अपने दाँतों से ही अपनी जीभ कट जाये और उससे पीड़ा होने लगे, तो मनुष्य किस पर क्रोध करेगा? यदि ऐसा मान लें कि देवता ही दुःख के कारण हैं तो भी इस दुःख से आत्मा की क्या हानि? क्योंकि यदि दुःख के कारण देवता हैं, तो इन्द्रियाभिमानी देवताओं के रूप में उनके भोक्ता भी तो वे ही हैं और देवता सभी शरीरों में एक है; जो देवता एक शरीर में है; वे ही दूसरे में भी है। ऐसी दशा में यदि अपने ही शरीर के किसी एक अंग से दूसरे अंग को चोट लग जाये तो भला, किस पर क्रोध किया जायेगा?

यदि ऐसा मानें कि आत्मा ही सुख-दुःख का कारण है तो वह तो अपना आप ही है, कोई दूसरा नहीं; क्योंकि आत्मा से भिन्न कुछ और है ही नहीं। यदि दूसरा कुछ प्रतीत होता है तो वह मिथ्या है। इसलिये न सुख है, न दुःख, फिर क्रोध कैसा? क्रोध का निमित्त ही क्या? यदि ग्रहों को सुख-दुःख का निमित्त माने, तो उनसे भी अजन्मा आत्मा की क्या हानि? उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील शरीर पर ही होता है। ग्रहों की पीड़ा तो उनका प्रभाव ग्रहण करने वाले शरीर को ही होती है और आत्मा उन ग्रहों और शरीर से सर्वथा परे हैं। तब भला वह किस पर क्रोध करे? यदि कर्मों को ही सुख-दुःख का कारण माने, तो उनसे आत्मा का क्या प्रयोजन? क्योंकि वे तो एक पदार्थ के जड़ और चेतन-उभयरूप होने पर ही हो सकते हैं।

(जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित जानने वाली होती है, उसी से कर्म हो सकते हैं; अतः वह विकारयुक्त होने के कारण जड़ होनी चाहिये और हिताहित का ज्ञान रखने के कारण चेतन।) किन्तु देह तो अचेतन है और उसमें पक्षीरूप से रहने वाला आत्मा सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है। इस प्रकार कर्मों का तो कोई आधार ही सिद्ध नहीं होता। फिर क्रोध किस पर करें? यदि ऐसा माने कि काल ही सुख-दुःख का कारण है, तो आत्मा पर उसका क्या प्रभाव? क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही है। जैसे आग आग को नहीं जला सकती और बर्फ बर्फ को नहीं गला सकता, वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने आत्मा को ही सुख-दुःख नहीं पहुँचा सकता। फिर किस पर क्रोध किया जाये? आत्मा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्दों से सर्वथा अतीत है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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