श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 15 श्लोक 12-23

एकादश स्कन्ध: पंचदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पंचदश अध्याय श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद


जो योगी वायु आदि चार भूतों के परमाणुओं को मेरा ही रूप समझकर चित्त को तदाकार कर देता है, उसे ‘लघिमा’ सिद्धि प्राप्त हो जाती है-उसे परमाणुरूप काल के[1] समान सूक्ष्म वस्तु बनने का सामर्थ्य प्राप्त हो जता है। जो सात्त्विक अहंकार को मेरा स्वरूप समझकर मेरे उसी रूप से चित्त की धारणा करता है, वह समस्त इन्द्रियों का अधिष्ठाता हो जाता है। मेरा चिन्तन करने वाला भक्त इस प्रकार ‘प्राप्ति’ नाम की सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो पुरुष मुझ महत्तत्त्वाभिमानी सूत्रात्मा में अपना चित्त स्थिर करता है, उसे मुझ अव्यक्त जन्मा (सूत्रात्मा) की ‘प्राकाम्य’ नाम कि सिद्धि प्राप्त होती है-जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं। जो त्रिगुणमयी माया के स्वामी मेरे काल-स्वरूप विश्वरूप की धारणा करता है, वह शरीरों और जीवों को अपने इच्छानुसार प्रेरित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धि का नाम ‘ईशित्व’ है। जो योगी मेरे नारायण-स्वरूप में-जिसे तुरीय और भगवान भी कहते हैं-मन को लगा देता है, मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकट होने लगते हैं और उसे ‘वशिता’ नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। निर्गुण ब्रह्म भी मैं ही हूँ। जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्मस्वरूप में स्थित कर लेता है, उसे परमानन्द-स्वरूपिणी ‘कामावसायिता’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है। इसके मिलने पर उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं।

प्रिय उद्धव! मेरा वह रूप, जो श्वेतद्वीप का स्वामी है, अत्यन्त शुद्ध और धर्ममय है। जो उसकी धारणा करता है, वह भूख-प्यास, जन्म-मृत्यु और शोक-मोह-इन छः उर्मियों से मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध-स्वरूप की प्राप्ति होती है। मैं ही समष्टि-प्राणरूप आकाशात्मा हूँ। जो मेरे इस स्वरूप में मन के द्वारा अनाहत नाद का चिन्तन करता है, वह ‘दूरश्रवण’ नाम की सिद्धि से सम्पन्न हो जाता है और आकाश में उपलब्ध होने वाली विविध प्राणियों की बोली सुन-समझ सकता है। जो योगी नेत्रों को सूर्य में और सूर्य को नेत्रों में संयुक्त कर देता है और दोनों के संयोग में मन-ही-मन मेरा ध्यान करता है, उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है, उसे ‘दूरदर्शन’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है और वह सारे संसार को देख सकता है।

मन और शरीर को प्राण वायु के सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे ‘मनोजव’ नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके प्रभाव से वह रोगी जहाँ भी जाने का संकल्प करता है, वहीं उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है। जिस समय योगी मन को उपादान-कारण बनाकर किसी देवता आदि का रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मन के अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने चित्त को मेरे साथ जोड़ दिया है। जो योगी दूसरे शरीर में प्रवेश करना चाहे, वह ऐसी भावना करे कि मैं उसी शरीर में हूँ। ऐसा करने से उसका प्राण वायुरूप धारण कर लेता है और वह एक फल से दूसरे फल पर जाने वाले भौंरे के समान अपना शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पृथ्वी आदि के परमाणुओं में गुरुत्व विद्यमान रहता है। इसी से उसका भी निषेध करने के लिये काल के परमाणु की समानता बतायी है।

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