एकादश स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंश अध्याय श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद
परीक्षित! अर्जुन अपने प्रियतम और सखा भगवान श्रीकृष्ण के विरह से पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हीं की गीतोक्त सदुपदेशों का स्मरण करके अपने मन को सँभाला। यदुवंश के मृत व्यक्तियों में जिनको कोई पिण्ड देने वाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुन ने क्रमशः विधिपूर्वक करवाया। महाराज! भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवासस्थान छोड़कर एक ही क्षण में सारी द्वारका डुबो दी। भगवान श्रीकृष्ण वहाँ आज भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरण मात्र से ही सारे पाप-तापों का नाश करने वाला और सर्वमंगलों को भी मंगल बनाने वाला है। प्रिय परीक्षित! पिण्डदान के अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया। राजन! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपद अभिषिक्त करके हिमालय की वीर यात्रा की। मैंने तुम्हें देवताओं के भी आराध्यदेव भगवान श्रीकृष्ण की जन्म लीला और कर्म लीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। परीक्षित! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्य-माधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्र के अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवत महापुराण में तथा दूसरे पुराणों में वर्णित परमानन्दमयी बाल लीला, कैशोर लीला आदि का संकीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रों के अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्ण के चरणों में पराभक्ति प्राप्त करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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