श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-10

पंचम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


ऋषभदेव जी का देहत्याग

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! योगरूप वायु से प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्नि से जिनके रागादि कर्मबीज दग्ध हो गये हैं-उन आत्माराम मुनियों को दैववश यदि स्वयं ही अणिमादि सिद्धियाँ प्राप्त हो जायें, तो वे उनके राग-द्वेषादि क्लेशों का कारण तो किसी प्रकार हो नहीं सकतीं। फिर भगवान् ऋषभ ने उन्हें स्वीकार क्यों नहीं किया?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- तुम्हारा कहना ठीक है; किन्तु संसार में जैसे चालाक व्याध अपने पकड़े हुए मृग का विश्वास नहीं करते, उसी प्रकार बुद्धिमान् लोग इस चंचल चित्त का भरोसा नहीं करते। ऐसा ही कहा भी है- ‘इस चंचल चित्त से कभी मैत्री नहीं करनी चाहिये। इसमें विश्वास करने से ही मोहिनीरूप में फँसकर महादेव जी का चिरकाल का संचित तप क्षीण हो गया था। जैसे व्यभिचारिणी स्त्री जार पुरुषों को अवकाश देकर उनके द्वारा अपने में विश्वास रखने वाले पति का वध करा देती है- उसी प्रकार जो योगी मन पर विश्वास करते हैं, उनका मन काम और उसके साथी क्रोधादि शत्रुओं को आक्रमण करने का अवसर देकर उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म-बन्धन का मूल तो यह मन ही है; इस पर कोई बुद्धिमान् कैसे विश्वास कर सकता है?

इसी से भगवान् ऋषभदेव यद्यपि इन्द्रादि सभी लोकपालों के भी भूषणस्वरूप थे, तो भी वे जड़ पुरुषों की भाँति अवधूतों के-से विविध वेष, भाषा और आचरण से अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाये रहते थे। अन्त में उन्होंने योगियों को देहत्याग की विधि सिखाने के लिये अपना शरीर छोड़ना चाहा। वे अपने अन्तःकरण में अभेद रूप से स्थित परमात्मा को अभिन्न रूप से देखते हुए वासनाओं की अनुवृत्ति से छूटकर लिंग देह के अभिमान से भी मुक्त होकर उपराम हो गये।

इस प्रकार लिंग देह के अभिमान से मुक्त भगवान् ऋषभदेव जी का शरीर योगमाया की वासना से केवल अभिमानाभास के आश्रय ही इस पृथ्वीतल पर विचरता रहा। वह दैववश कोंक, वेंक और दक्षिण आदि कुटक कर्णाटक के देशों में गया और मुँह में पत्थर का टुकड़ा डाले तथा बाल बिखेरे उन्मत्त के समान दिगम्बर रूप से कुटकाचल के वन में घूमने लगा। इसी समय झंझावात झकझोरे हुए बाँसों के घर्षण से प्रबल दावाग्नि धधक उठी और उसने सारे वन को अपनी लाल-लाल लपटों में लेकर ऋषभदेव जी के सहित भस्म कर दिया।

राजन्! जिस समय कलियुग में अधर्म की वृद्धि होगी, उस समय कोंक, वेंक और कुटक देश का मन्दमति राजा अर्हत् वहाँ के लोगों से ऋषभदेव जी के आश्रमातीत आचरण का वृतान्त सुनकर तथा स्वयं उसे ग्रहण कर लोगों के पूर्वसंचित पापफलरूप होनहार के वशीभूत हो भयरहित स्वधर्म-पथ का परित्याग करके अपनी बुद्धि से अनुचित और पाखण्डपूर्ण कुमार्ग का प्रचार करेगा। उससे कलियुग में देवमाया से मोहित अनेकों अधम मनुष्य अपने शास्त्रविहित शौच और आचार को छोड़ बैठेंगे। अधर्म बहुल कलियुग के प्रभाव से बुद्धिहीन हो जाने के कारण वे स्नान न करना, आचमन न करना, अशुद्ध रहना, केश नुचवाना आदि ईश्वर का तिरस्कार करने वाले पाखण्ड धर्मों को मनमाने ढंग से स्वीकार करेंगे और प्रायः वेद, ब्राह्मण एवं भगवान् यज्ञपुरुष की निन्दा करने लगेंगे।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः