श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 27 श्लोक 1-17

चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


पुरंजनपुरी पर चण्डवेग की चढ़ाई तथा कालकन्या का चरित्र

श्रीनारद जी कहते हैं- महाराज! इस प्रकार वह सुन्दरी अनेकों नखरों से पुरंजन को पूरी तरह अपने वश में कर उसे आनन्दित करती हुई विहार करने लगी। उसने अच्छी तरह स्नान कर अनेक प्रकार के मांगलिक श्रृंगार किये तथा भोजनादि से तृप्त होकर वह राजा के पास आयी। राजा ने उस मनोहर मुख वाली राजमहिषी का सादर अभिनन्दन किया। पुरंजनी ने राजा का आलिंगन किया और राजा ने उसे गले लगाया। फिर एकान्त में मन के अनुकूल रहस्य की बातें करते हुए वह ऐसा मोहित हो गया कि उस कामिनी में ही चित्त लगा रहने के कारण उसे दिन-रात के भेद से निरन्तर बीतते हुए काल की दुस्तर गति का भी कुछ पता न चला। मद से छका हुआ मनस्वी पुरंजन अपनी प्रिया की भुजा पर सिर रखे महामूल्य शय्या पर पड़ा रहता। उसे तो वह रमणी ही जीवन का परम फल जान पड़ती थी। आज्ञान से आवृत्त हो जाने के कारण उसे आत्मा अथवा परमात्मा का कोई ज्ञान न रहा।

राजन्! इस प्रकार कामातुर चित्त से उसके साथ विहार करते-करते राजा पुरंजन की जवानी आधे क्षण के समान बीत गयी। प्रजापते! उस पुरंजनी से राजा पुरंजन के ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस कन्याएँ हुईं, जो सभी माता-पिता का सुयश बढ़ाने वाली और सुशीलता, उदारता आदि गुणों से सम्पन्न थीं। ये पौरंजनी नाम से विख्यात हुईं। इतने में भी उस सम्राट् की लंबी आयु का आधा भाग निकल गया। फिर पांचालराज पुरंजन ने पितृवंश की वृद्धि करने वाले पुत्रों का वधुओं के साथ और कन्याओं का उनके योग्य वरों के साथ विवाह कर दिया। पुत्रों में से प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। उनसे वृद्धि को प्राप्त होकर पुरंजन का वंश सारे पांचाल देश में फैल गया। इन पुत्र, पौत्र गृह, कोश, सेवक और मन्त्री आदि में दृढ़ ममता हो जाने से वह इन विषयों में ही बँधा गया। फिर तुम्हारी तरह उसने भी अनेक प्रकार के भोगों की कामना से यज्ञ की दीक्षा ले तरह-तरह के पशुहिंसामय घोर यज्ञों से देवता, पितर और भूपतियों की आराधना की। इस प्रकार वह जीवन भर आत्मा का कल्याण करने वाले कर्मों की ओर से असावधान और कुटुम्बपालन में व्यस्त रहा। अन्त में वृद्धावस्था का वह समय आ पहुँचा, जो स्त्रीलंपट पुरुषों को बड़ा अप्रिय होता है।

राजन्! चण्डवेग नाम का एक गन्धर्वराज है। उसके अधीन तीन सा साठ महाबलवान् गन्धर्व रहते हैं। इनके साथ मिथुनभाव से स्थित कृष्ण और शुक्ल वर्ण की उतनी ही गंधार्वियाँ भी हैं। ये बारी-बारी से चक्कर लगाकर भोग-विलास की सामग्रियों से भरी-पूरी नगरी को लूटती रहती हैं। गन्धर्वराज चण्डवेग के उन अनुचरों ने जब राजा पुरंजन का नगर लूटना आरम्भ किया, तब उन्हें पाँच फन के सर्प प्रजागर ने रोका। यह पुरंजनपुरी की चौकसी कंरने वाला महाबलवान् सर्प सौ वर्ष तक अकेला ही उन सात सौ बीस गन्धर्व-गन्धर्वियों से युद्ध करता रहा। बहुत-से वीरों के साथ अकेले ही युद्ध करने के कारण अपने एकमात्र सम्बन्धी प्रजागर को बलहीन हुआ देख राजा पुरंजन को अपने राष्ट्र और नगर में रहने वाले अन्य बान्धवों के सहित बड़ी चिन्ता हुई।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः