श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 1-13

षष्ठ स्कन्ध: पंचम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


श्रीनारद जी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारद जी को दक्ष का शाप

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान् के शक्ति संचार से दक्ष प्रजापति परम समर्थ हो गये थे। उन्होंने पंचजन की पुत्री असिक्नी से हर्यश्व नाम के दस हजार पुत्र उत्पन्न किये।

राजन्! दक्ष के ये सभी पुत्र एक आचरण और एक स्वभाव के थे। जब उनके पिता दक्ष ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब वे तपस्या करने के विचार से पश्चिम दिशा की ओर गये। पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी और समुद्र के संगम पर 'नारायण-सर' नाम का एक महान् तीर्थ है। बड़े-बड़े मुनि और सिद्ध पुरुष वहाँ निवास करते हैं। नारायण-सर में स्नान करते ही हर्यश्वों के अन्तःकरण शुद्ध हो गये, उनकी बुद्धि भागवत धर्म में लग गयी। फिर भी अपने पिता दक्ष की आज्ञा से बँधे होने कारण वे उग्र तपस्या ही करते रहे।

जब देवर्षि नारद ने देखा कि भागवत धर्म में रुचि होने पर भी ये प्रजा वृद्धि के लिये ही तत्पर हैं, तब उन्होंने उनके पास आकर कहा- ‘अरे हर्यश्वो! तुम प्रजापति हो तो क्या हुआ। वास्तव में तो तुम लोग मूर्ख ही हो। बतलाओं तो, जब तुम लोगों ने पृथ्वी का अन्त ही नहीं देखा, तब सृष्टि कैसे करोगे? बड़े खेद की बात है! देखो- एक ऐसा देश है, जिसमें एक ही पुरुष है। एक ऐसा बिल है, जिससे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं है। एक ऐसी स्त्री है, जो बहुरूपिणी है। एक ऐसा पुरुष है, जो व्यभिचारिणी का पति है। एक ऐसी नदी है, जो आगे-पीछे दोनों ओर बहती है। एक ऐसा विचित्र घर है, जो पचीस पदार्थों से बना है। एक ऐसा हंस है, जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है। एक ऐसा चक्र है, जो छुरे एवं वज्र से बना हुआ है और अपने-आप में घूमता रहता है। मूर्ख हर्यश्वो! जब तक तुम लोग अपने सर्वज्ञ पिता के उचित आदेश को समझ नहीं लोग और इन उपर्युक्त वस्तुओं को देख नहीं लोगे, तब तक उनके आज्ञानुसार सृष्टि कैसे कर सकोगे?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! हर्यश्व जन्म से ही बड़े बुद्धिमान् थे, वे देवर्षि नारद की यह पहेली, ये गूढ़ वचन सुनकर अपनी बुद्धि से स्वयं ही विचार करने लगे- (देवर्षि नारद का कहना तो सच है) यह लिंग शरीर ही जिसे साधरणतः जीव कहते हैं, पृथ्वी है और यही आत्मा का अनादि बन्धन है। इसका अन्त (विनाश) देखे बिना मोक्ष के अनुपयोगी कर्मों में लगे रहने से क्या लाभ है? सचमुच ईश्वर एक ही है। वह जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं और उनके अभिमानियों से भिन्न, उनका साक्षी तुरीय है। वही सबका आश्रय है, परन्तु उसका आश्रय कोई नहीं है। वही भगवान् हैं। उस प्रकृति आदि से अतीत, नित्यमुक्त परमात्मा को देखे बिना भगवान् के प्रति असमर्पित कर्मों से जीव को क्या लाभ है? जैसे मनुष्य बिल रूप पाताल में प्रवेश करके वहाँ से नहीं लौट पाता- वैसे ही जीव जिसको प्राप्त होकर फिर संसार में नहीं लौटता, जो स्वयं अन्तर्ज्योतिःस्वरूप है, उस परमात्मा को जाने बिना विनाशवान् स्वर्ग आदि फल देने वाले कर्मों को करने से क्या लाभ है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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