श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 1-11

पंचम स्कन्ध: एकादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


राजा रहूगण को भरत जी का उपदेश

जड भरत ने कहा- राजन्! तुम अज्ञानी होने पर भी पण्डितों के समान ऊपर-ऊपर की तर्क-वितर्क युक्त बात कह रहे हो। इसलिये श्रेष्ठ ज्ञानियों में तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्त्वज्ञानी पुरुष इस अविचार सिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहार को तत्त्वविचार के समय सत्य रूप से स्वीकार नहीं करते। लौकिक व्यवहार के समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है, क्योंकि वेद वाक्य भी अधिकतर गृहस्थजनोचित यज्ञ विधि के विस्तार में ही व्यस्त हैं, राग-द्वेषादि दोषों से रहित विशुद्ध तत्त्वज्ञानी की पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमें भी नहीं हुई है। जिसे गृहस्थोचित यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होने वाला स्वर्गादि सुख स्वप्न के समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्त्वज्ञान कराने में साक्षात् उपनिषद्-वाक्य भी समर्थ नहीं है।

जब तक मनुष्य का मन सत्त्व, रज अथवा तमोगुण के वशीभूत रहता है, तब तक वह बिना किसी अंकुश के उसकी ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों से शुभाशुभ कर्म कराता रहता है। यह मन वासनामय, विषयासक्त, गुणों से प्रेरित, विकारी और भूत एवं इन्द्रियरूप सोलह कलाओं में मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामों से देवता और मनुष्यादि रूप धारण करके शरीररूप उपाधियों के भेद से जीव की उत्तमता और अधमता का कारण होता है। यह मायामय मन संसार चक्र में छलने वाला है, यही अपनी देह के अभिमानी जीव से मिलकर उसे कालचक्र से प्राप्त हुए सुख-दुःख और इनसे व्यतिरिक्त मोहरूप अवश्यम्भावी फलों की अभिव्यक्ति करता है। जब तक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मन को ही त्रिगुणमय अधम संसार का और गुणातीत परमोत्कृष्ट मोक्ष पद का कारण बताते हैं।

विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्ष पद प्राप्त करा देता है। जिस प्रकार घी से भीगी हुई बत्ती को खाने वाले दीपक से तो धुंएँ वाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है-उसी प्रकार विषय और कर्मों से आसक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियों का आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होने पर वह अपने तत्त्व में लीन हो जाता है।

वीरवर! पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार- ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर- ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं। गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार- ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है। कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं। ये मन की ग्यारह वृतियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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