श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 1-18

अष्टम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


देवताओं का ब्रह्मा जी के पास जाना और ब्रह्माकृत भगवान् की स्तुति

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान् की यह गजेन्द्र मोक्ष की पवित्र लीला समस्त पापों का नाश करने वाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तर की कथा सुनो।

पाँचवें मनु का नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामस के सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे। उस मन्वन्तर में इन्द्र का नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओं के प्रधान गण थे। परीक्षित! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे। उनमें शुभ्र ऋषि की पत्नी का नाम था विकुण्ठा। उन्हीं के गर्भ से वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओं के साथ अपने अंश से स्वयं भगवान् ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया। उन्हीं ने लक्ष्मी देवी की प्रार्थना से उनको प्रसन्न करने के लिये वैकुण्ठधाम की रचना की थी। वह लोक समस्त लोकों में श्रेष्ठ है। उन वैकुण्ठनाथ के कल्याणमय गुण और प्रभाव का वर्णन मैं संक्षेप से (तीसरे स्कन्ध में) कर चुका हूँ।

भगवान् विष्णु के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वी के परमाणुओं की गिनती कर ली हो। छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पुरुस, सुद्युम्न आदि कई पुत्र थे। इन्द्र का नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उन मन्वन्तर में हविष्यामान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे। जगत्पति भगवान् ने उस समय भी वैराज की पत्नी सम्भूति के गर्भ से अजित नाम का अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने ही समुद्र मन्थन करके देवताओं को अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छप रूप धारण करके मन्दराचल की मथानी के आधार बने थे।

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! भगवान् ने क्षीरसागर का मन्थन कैसे किया? उन्होंने कच्छप रूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्य से मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया? देवताओं को उस समय अमृत कैसे मिला? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्र से निकलीं? भगवान् की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। आप भक्तवत्सल भगवान् की महिमा का ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुनने के लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघाने का तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनों से यह संसार की ज्वालाओं से जलता जो रहा है।

सूत जी ने कहा- शौनकादि ऋषियों! भगवान् श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित के इस प्रश्न का अभिनन्दन करते हुए भगवान् की समुद्र-मन्थन-लीला का वर्णन आरम्भ किया।

श्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जिस समय की यह बात है, उस समय असुरों ने अपने तीखे शस्त्रों से देवताओं को पराजित कर दिया था। उस युद्ध में बहुतों के तो प्राणों पर ही बन आयी, वे रणभूमि में गिरकर फिर उठ न सके। दुर्वासा के शाप से[1] तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँ तक कि यज्ञ-यागादि धर्म-कर्मों का भी लोप हो गया था।

यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओं ने आपस में बहुत कुछ सोचा-विचारा; परन्तु अपने विचारों से वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। तब वे सब-के-सब सुमेरु के शिखर पर स्थित ब्रह्मा जी की सभा में गये और वहाँ उन लोगों ने बड़ी नम्रता से ब्रह्मा जी की सेवा में अपनी परिस्थिति का विस्तृत विवरण उपस्थित किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह प्रसंग विष्णुपुराण में इस प्रकार आया है। एक बार श्रीदुर्वासा जी वैकुण्ठलोक से आ रहे थे। मार्ग में ऐरावत पर चढ़े देवराज इन्द्र मिले। उन्हें त्रिलोकाधिपति जानकर दुर्वासा जी ने भगवान् के प्रसाद की माला दी; किन्तु इन्द्र ने ऐश्वर्य के मद से उसका कुछ भी आदर न कर उसे ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया। ऐरावत ने उसे सूँड़ में लेकर पैरों से कुचल डाला। इससे दुर्वासा जी ने क्रोधित होकर शाप दिया कि तू तीनों लोकों सहित शीघ्र ही श्रीहीन हो जायेगा।

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