श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-11

सप्तम स्कन्ध: नवमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद जी के द्वारा नृसिंह भगवान् की स्तुति

नारद जी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंह भगवान् के क्रोधावेश को शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसी को उसका ओर-छोर नहीं दीखता था। देवताओं ने उन्हें शान्त करने के लिये स्वयं लक्ष्मी जी को भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंह भगवान् का वह महान् अद्भुत रूप देखा, तब भयवश वे भी उनके पास तक न जा सकीं। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था।

तब ब्रह्मा जी ने अपने पास ही खड़े प्रह्लाद को यह कहकर भेजा कि ‘बेटा! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान् कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो’। भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद ‘जो आज्ञा’ कहकर और धीरे से भगवान् के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वी पर साष्टांग लोट गये। नृसिंह भगवान् ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणों के पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दया से भर गया। उन्होंने प्रह्लाद को उठाकर उनके सिर पर अपना वह करकमल रख दिया, जो कालसर्प से भयभती पुरुषों को अभयदान करने वाला है।

भगवान् के करकमलों का स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्द में मग्न होकर भगवान् के चरणकमलों को अपने हृदय में धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदय में प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रों से आनन्दाश्रु झरने लगे। प्रह्लाद जी भावपूर्ण हृदय और निर्निमेष नयनों से भगवान् को देख रहे थे। भाव समाधि से स्वयं एकाग्र हुए मन के द्वारा होने भगवान् के गुणों का चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणी से स्तुति की।

प्रह्लाद जी ने कहा- ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषों की बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुण में ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणों से आपको अब तक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर-जाति में उत्पन्न हुआ हूँ। क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं? मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग- ये सभी गुण परमपुरुष भगवान् को सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं- परन्तु भक्ति से तो भगवान् गजेन्द्र पर भी सन्तुष्ट हो गये थे। मेरी समझ से इन बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों से विमुख हो तो उससे वह चाण्डालश्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान् के चरणों में समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुल तक को पवित्र कर देता है और बड़प्पन का अभिमान रखने वाला वह ब्राह्मण अपने को भी पवित्र नहीं कर सकता। सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषों की पूजा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तों के हित के लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुख का सौन्दर्य दर्पण में दीखने वाले प्रतिबिम्ब को भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान् के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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