श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 1-15

नवम स्कन्ध: अथैकोनविंशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


ययाति का गृहत्याग

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! राजा ययाति इस प्रकार स्त्री के वश में होकर विषयों का उपभोग करते रहे। एक दिन जब अपने अधःपतन पर दृष्टि गयी, तब उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ और उन्होंने अपनी प्रियपत्नी देवयानी से इस गाथा का गान किया- ‘भृगुनन्दिनी! तुम यह गाथा सुनो। पृथ्वी में मेरे ही समान विषयीं का यह इतिहास है। ऐसे ही ग्रामवासी विषयी पुरुषों के सम्बन्ध में वनवासी जितेन्द्रिय पुरुष दुःख के साथ विचार किया करते हैं कि इनका कल्याण कैसे होगा? एक था बकरा। वह वन में अकेला ही अपने को प्रिय लगने वाली वस्तुएँ ढूँढ़ता हुआ घूम रहा था। उसने देखा कि अपने कर्मवश एक बकरी कूएँ में गिर पड़ी है। वह बकरा बड़ा कामी था। वह सोचने लगा कि इस बकरी को किस प्रकार कूएँ से निकाला जाये। उसने अपने सींग से कूएँ के पास की धरती खोद डाली और रास्ता तैयार कर लिया। जब वह सुन्दरी बकरी कूएँ से निकली तो उसने उस बकरे से ही प्रेम करना चाहा। वह दाढ़ी-मूँछमण्डित बकरा हृष्ट-पुष्ट, जवान, बकरियों को सुख देने वाला, विहार कुशल और बहुत प्यारा था। जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कूएँ में गिरी हुई बकरी ने उसे अपना प्रेमपात्र चुन लिया है, तब उन्होंने भी उसी को अपना पति बना लिया। वे तो पहले से ही पति की तलाश में थीं। उस बकरे के सिर पर कामरूप पिशाच सवार था। वह अकेला ही बहुत-सी बकरियों के साथ विहार करने लगा और अपनी सब सुध-बुध खो बैठा।

जब उसकी कूएँ से निकाली हुई प्रियतमा बकरी ने देखा कि मेरा पति तो अपनी दूसरी प्रियतमा बकरी से विहार कर रहा है तो उसे बकरे की यह करतूत सहन न हुई। उसने देखा कि यह तो बड़ा कामी है, इसके प्रेम का कोई भरोसा नहीं है और यह मित्र के रूप में शत्रु का काम कर रहा है। अतः वह बकरी उस इन्द्रियलोलुप बकरे को छोड़कर बड़े दुःख से अपने पालने वाले के पास चली गयी। वह दीनकामी बकरा उसे मनाने के लिये ‘में-में’ करता हुआ उसके पीछे-पीछे चला। परन्तु उसे मार्ग में मना न सका।

उस बकरी का स्वामी एक ब्राह्मण था। उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अण्डकोष को काट दिया। परन्तु फिर उस बकरी का ही भला करने के लिये फिर से उसे जोड़ भी दिया। उसे इस प्रकार के बहुत-से उपाय मालूम थे। प्रिये! इस प्रकार अण्डकोष जुड़ जाने पर वह बकरा फिर कूएँ से निकली हुई बकरी के साथ बहुत दिनों तक विषय भोग करता रहा, परन्तु आज तक उसे सन्तोष न हुआ। सुन्दरी! मेरी भी यही दशा है। तुम्हारे प्रेमपाश में बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया। तुम्हारी माया से मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ।

‘प्रिये! पृथ्वी में जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं-वे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुष के मन को सन्तुष्ट नहीं कर सकते जो कामनाओं के प्रहार से जर्जर हो रहा है। विषयों के भोगने से भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती। बल्कि जैसे घी की आहुति डालने पर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोग वासनाएँ भी भोगों से प्रबल हो जाती हैं। जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तु के साथ राग-द्वेष का भाव नहीं रखता, तब वह समदर्शी हो जाता है तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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