श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 1-13

सप्तम स्कन्ध: अथाष्टमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


नृसिंह भगवान् का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति

नारद जी कहते हैं—प्रह्लाद का प्रवचन सुनकर दैत्य बालकों ने उसी समय से निर्दोष होने के कारण, उनकी बात पकड़ ली। गुरु जी की दूषित शिक्षा की ओर उन्होंने ध्यान ही न दिया।

जब गुरु जी ने देखा कि उन सभी विद्यार्थियों की बुद्धि एकमात्र भगवान् में स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपु के पास जाकर निवेदन किया। अपने पुत्र प्रह्लाद की इस असह्य और अप्रिय अनीति को सुनकर क्रोध के मारे उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। अन्त में उसने यही निश्चय किया कि प्रह्लाद को अब अपने ही हाथ से मार डालना चाहिये।

मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले प्रह्लाद जी बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर चुपचाप हिरण्यकशिपु के सामने खड़े थे और तिरस्कार के सर्वथा अयोग्य थे। परन्तु हिरण्यकशिपु स्वभाव से ही क्रूर था। वह पैर की चोट खाये हुए साँप की तरह फुफकारने लगा। उसने उनकी ओर पाप भरी टेढ़ी नजर से देखा और कठोर वाणी से डाँटते हुए कह- ‘मूर्ख! तू बड़ा उदण्ड हो गया है। स्वयं तो नीच है ही, अब हमारे कुल के और बालकों को भी फोड़ना चाहता है। तूने बड़ी ढिठाई से मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। आज ही तुझे यमराज के घर भेजकर इसका फल चखाता हूँ। मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख! तूने किसके बल-बूते पर निडर की तरह मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?'

प्रह्लाद ने कहा- दैत्यराज! ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सब छोड़े-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान् ने ही अपने वश में कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं। वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान् प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वह परमेश्वर अपनी शक्तियों के द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं। आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मन को सबके प्रति समान बनाइये। इस संसार में अपने वश में न रहने वाले कुमार्गगामी मन के अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मन में सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान् की सबसे बड़ी पूजा है। जो लोग अपना सर्वस्व लूटने वाले इन छः इन्द्रियरूपी डाकुओं पर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दासों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ, जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्मा ने समस्त प्राणियों के प्रति समता का भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञान से पैदा होने वाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहर के शत्रु तो रहें ही कैसे।

हिरण्यकशिपु ने कहा- 'रे मन्दबुद्धि! तेरे बहकने की भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैर की बातें बका करते हैं। अभागे! तूने मेरे सिवा जो और किसी को जगत् का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है? तो इस खंभे में क्यों नहीं दीखता?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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