श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 12 श्लोक 1-8

पंचम स्कन्ध: द्वादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद


रहूगण का प्रश्न और भरत जी का समाधान

राजा रहूगण ने कहा- भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने जगत् का उद्धार करने के लिये ही यह देह धारण की है। योगेश्वर! अपने परमानन्दमयस्वरूप का अनुभव करके आप इस स्थूल शरीर से उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मण के वेष से अपने नित्यज्ञानमयस्वरूप को जनसाधारण की दृष्टि से ओझल किये हुए हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

ब्रह्मन्! जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृत तुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेक बुद्धि को देहाभिमानरूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं।

देव! मैं आपसे अपने संशयों की निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा। पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्म-योगमय उपदेश दिया है, उसी को सरल करके समझाइये, उसे समझने की मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।

योगेश्वर! आपने जो यह कहा कि भार उठाने की क्रिया तथा उससे जो श्रमफल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होने पर भी केवल व्यवहार मूल के ही हैं, वास्तव में सत्य नहीं है-वे तत्त्व विचार के सामने कुछ भी नहीं ठहरते-सो इस विषय में मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथन का मर्म मेरी समझ में नहीं आया रहा है।

जड भरत ने कहा- पृथ्वीपते! यह देह पृथ्वी का विकार है, पाषाणादि से इसका क्या भेद है? जब यह किसी कारण से पृथ्वी पर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमशः टखने, पिंडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्षःस्थल, गर्दन और कंधे आदि अंग हैं। कंधों के ऊपर लकड़ी की पालकी रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नाम का एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करने से तुम ‘मैं सिन्धु देश का राजा हूँ’ इस प्रबल मद से अंधे हो रहे हो। किन्तु इसी से तुम्हारी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तव में तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो। तुमने इन बेचारे दीन-दुःखिया कहारों को बेगार में पकड़कर पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभा में बढ़-बढ़कर बातें बनाते हो कि मैं लोकों की रक्षा करने वाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी में ही लीन होते हैं, अतः उनके क्रियाभेद के कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं-बताओ तो, उनके सिवा व्यवहार का और क्या मूल है?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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