श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 1-12

सप्तम स्कन्ध: प्रथमोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजय की कथा

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! भगवान् तो स्वभाव से ही भेदभाव से रहित हैं-सम हैं, समस्त प्राणियों के प्रिय और सुहृद् हैं; फिर उन्होंने, जैसे कोई साधारण मनुष्य भेदभाव से अपने मित्र का पक्ष ले और शत्रुओं का अनिष्ट अरे, उसी प्रकार इन्द्र के लिये दैत्यों का वध क्यों किया? वे स्वयं परिपूर्ण कल्याणस्वरूप हैं, इसीलिये उन्हें देवताओं से कुछ लेना-देना नहीं है तथा निर्गुण होने के कारण दैत्यों से कुछ वैर-विरोध और उद्वेग भी नहीं है। भगवत्प्रेम के सौभाग्य से सम्पन्न महातमन्! हमारे चित्त में भगवान् के समत्व आदि गुणों के सम्बन्ध में बड़ा भारी सन्देह हो रहा है। आप कृपा करके उसे मिटाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- महाराज! भगवान् के अद्भुत चरित्र के सम्बन्ध में तुमने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया; क्योंकि ऐसे प्रसंग प्रह्लाद आदि भक्तों की महिमा से परिपूर्ण होते हैं, जिसके श्रवण से भगवान् की भक्ति बढ़ती है। इस परम पुण्यमय प्रसंग को नारदादि महात्मागण बड़े प्रेम से गाते रहते हैं। अब मैं अपने पिता श्रीकृष्ण-द्वैपायन मुनि को नमस्कार करके भगवान् की लीला-कथा का वर्णन करता हूँ। वास्तव में भगवान् निर्गुण, अजन्मा, अव्यक्त और प्रकृति से परे हैं। ऐसे होने पर भी अपनी माया के गुणों को स्वीकार करके वे बाध्य-बाधक भाव को अर्थात् मरने और मारने वाले दोनों के परस्पर-विरोधी रूपों को ग्रहण करते हैं। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति के गुण हैं, परमात्मा के नहीं।

परीक्षित! इन तीनों गुणों की भी एक साथ ही घटती-बढ़ती नहीं होती। भगवान् समय-समय के अनुसार गुणों को स्वीकार करते हैं। सत्त्वगुण की वृद्धि के समय देवता और ऋषियों का, रजोगुण की वृद्धि के समय दैत्यों का और तमोगुण की वृद्धि के समय वे यक्ष एवं राक्षसों को अपनाते और उनका अभ्युदय करते हैं। जैसे व्यापक अग्नि काष्ठ आदि भिन्न-भिन्न आश्रयों में रहने पर भी उनसे अलग नहीं जान पड़ती, परन्तु मन्थन करने पर वह प्रकट हो जाती है-वैसे ही परमात्मा सभी शरीरों में रहते हैं, अलग नहीं जान पड़ते। परन्तु विचारशील पुरुष हृदय मन्थन करके-उनके अतिरिक्त सभी वस्तुओं का बोध करके अन्ततः अपने हृदय में ही अन्तर्यामीरूप से उन्हें प्राप्त कर लेते हैं। जब परमेश्वर अपने लिये शरीरों का निर्माण करना चाहते हैं, तब अपनी माया से रजोगुण की अलग सृष्टि करते हैं। जब वे विचित्र योनियों में रमण करना चाहते हैं, तब सत्त्वगुण की सृष्टि करते हैं और जब वे शयन करना चाहते हैं, तब तमोगुण को बढ़ा देते हैं। परीक्षित! भगवान् सत्य संकल्प हैं। वे ही जगत् की उत्पत्ति के निमित्त भूत, प्रकृति और पुरुष के सहकारी एवं आश्रयकाल की सृष्टि करते हैं। इसलिये वे काल के अधीन नहीं, काल ही उनके अधीन है।

राजन्! वे काल स्वरूप ईश्वर जब सत्त्वगुण की वृद्धि करते हैं, तब सत्त्वमय देवताओं का बल बढ़ाते हैं और तभी वे परमयशस्वी देवप्रिय परमात्मा देवविरोधी, रजोगुणी एवं तमोगुणी दैत्यों का संहार करते हैं। वस्तुतः वे सम ही हैं। राजन्! इसी विषय में देवर्षि नारद ने बड़े प्रेम से एक इतिहास कहा था। यह उस समय की बात है, जब राजसूय यज्ञ में तुम्हारे दादा युधिष्ठिर ने उनसे इस सम्बन्ध में एक प्रश्न किया था।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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