पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद
राजा परीक्षित ने पूछा- मुने! महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रम में कैसे रुचि हुई, जिसमें फँसने के कारण मनुष्य को अपने स्वरूप की विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धन में बँध जाता है? विप्रवर! निश्चय ही ऐसे निःसंग महापुरुषों का इस प्रकार गृहस्थाश्रम में अभिनिवेश होना उचित नहीं है। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरि के चरणों की शीतला छाया का आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषों की कुटुम्बादि में कभी आसक्ति नहीं हो सकती। ब्रह्मन्! मुझे इस बात का बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियव्रत ने स्त्री, घर और पुत्रादि में आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर ली और क्योंकर उनकी भगवान् श्रीकृष्ण में अविचल भक्ति हुई। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! तुम्हारा कथन बहुत ठीक है। जिनका चित्त पवित्रकीर्ति श्रीहरि के परम मधुर चरणकमल-मकरन्द के रस में सराबोर हो गया है, वे किसी विघ्न-बाधा के कारण रुकावट आ जाने पर भी भगवद्भक्त परमहंसों के प्रिय श्रीवासुदेव भगवान् के कथा श्रवणरूपी परमकल्याणमय मार्ग को प्रायः छोड़ते नहीं। राजन्! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भवद्भक्त थे, श्रीनारद जी के चरणों की सेवा करने से उन्हें सहज में ही परमार्थतत्त्व का बोध हो गया था। वे ब्रह्मसत्र की दीक्षा- निरन्तर ब्रह्माभ्यास में जीवन बिताने का नियम लेने वाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनु ने उन्हें पृथ्वीपालन के लिये शास्त्र में बताये हुए सभी श्रेष्ठ गुणों से पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासन के लिये आज्ञा दी। किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोग के द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओं को भगवान् वासुदेव के चरणों में ही समर्पण कर चुके थे। अतः पिता की आज्ञा किसी प्रकार उल्लंघन करने योग्य न होने पर भी, यह सोचकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपंच से आच्छादित हो जायेगा- राज्य और कुटुम्ब की चिन्ता में फँसकर मैं परमार्थतत्त्व को प्रायः भूल जाऊँगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया। आदिदेव स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा जी को निरन्तर इस गुणमय प्रपंच की वृद्धि का ही विचार रहता है। वे सारे संसार के जीवों का अभिप्राय जानते रहते हैं। जब उन्होंने प्रियव्रत की ऐसी प्रवृत्ति देखी, तब वे मूर्तिमान् चारों वेद और मरीचि आदि पार्षदों को साथ लिये अपने लोक से उतरे। आकाश में जहाँ-तहाँ विमानों पर चढ़े हुए इन्द्रादि प्रधान-प्रधान देवताओं ने उनका पूजन किया तथा मार्ग में टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण और मुनिजन ने स्तवन किया। इस प्रकार जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात् नक्षत्रनाथ चन्द्रमा के समान गन्धमादन की घाटी को प्रकाशित करते हुए प्रियव्रत के पास पहुँचे। प्रियव्रत को आत्मविद्या का उपदेश देने के लिये वहाँ नारद जी भी आये हुए थे। ब्रह्मा जी के वहाँ पहुँचने पर उनके वाहन हंस को देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान् ब्रह्मा जी पधारे हैं; अतः वे स्वयाम्भुव मनु और प्रियव्रत के सहित तुरंत खड़े हो गये और सबने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया। परीक्षित! नारद जी ने उनकी अनेक प्रकार से पूजा की और सुमधुर वचनों में उनके गुण और अवतार की उत्कृष्टता का वर्णन किया। तब आदिपुरुष भगवान् ब्रह्मा जी ने प्रियव्रत की ओर मन्द मुस्कान युक्त दयादृष्टि से देखते हुए इस प्रकार कहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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