श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 1-18

चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


पुरंजनोपाख्यान का प्रारम्भ

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार भगवान् शंकर ने प्रचेताओं को उपदेश दिया। फिर प्रचेताओं ने शंकर जी की बड़े भक्तिभाव से पूजा की। इसके पश्चात् वे उन राजकुमारों के सामने ही अन्तर्धान हो गये। सब-के-सब प्रचेता जल में खड़े रहकर भगवान् रुद्र के बताये स्तोत्र का जप करते हुए दस हजार वर्ष तक तपस्या करते रहे। इन दिनों राजा प्राचीनबर्हि का चित्त कर्मकाण्ड में बहुत रम गया था। उन्हें अध्यात्मविद्या-विशारद परम कृपालु नारद जी ने उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि ‘राजन्! इन कर्मों के द्वारा तुम अपना कौन-सा कल्याण करना चाहते हो? दुःख के अत्यान्तिक नाश और पमानन्द की प्राप्ति का नाम कल्याण है; वह तो कर्मों से नहीं मिलता।

राजा ने कहा- महाभाग नारद जी! मेरी बुद्धि कर्म में फँसी हुई है, इसलिये मुझे परम कल्याण का कोई पता नहीं है। आप मुझे विशुद्ध ज्ञान का उपदेश दीजिये, जिससे मैं कर्मबन्धन से छूट जाऊँ। जो पुरुष कपटधर्ममय गृहस्थाश्रम में ही रहता हुआ पुत्र, स्त्री और धन को ही परम पुरुषार्थ मानता है, वह अज्ञानवश संसारारण्य में ही भटकता रहने के कारण उस परम कल्याण को प्राप्त नहीं कर सकता।

श्रीनारद जी ने कहा- देखो, देखो, राजन्! तुमने यज्ञ में निर्दयतापूर्वक जिन हजारों पशुओं की बलि दी है- उन्हें आकाश में देखो। ये सब तुम्हारे द्वारा प्राप्त हुई पीड़ाओं को याद करते हुए बदला लेने के लिये तुम्हारी बाट देख रहे हैं। जब तुम मरकर परलोक में जाओगे, तब ये अत्यन्त क्रोध में भरकर तुम्हें अपने लोहे के-से सींगों से छेदेंगे। अच्छा, इस विषय में मैं तुम्हें एक प्राचीन उपाख्यान सुनाता हूँ। वह राजा पुरंजन का चरित्र है, उसे तुम मुझसे सावधान होकर सुनो।

राजन्! पूर्वकाल में पुरंजन नाम का एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था। कोई भी उसकी चेष्टाओं को समझ नहीं सकता था। राजा पुरंजन अपने रहने योग्य स्थान की खोज में सारी पृथ्वी में घूमा; फिर भी जब उसे कोई अनुरूप स्थान न मिला, तब वह कुछ उदास-सा हो गया। उसे तरह-तरह के भोगों की लालसा थी; उन्हें भोगने के लिये उसने संसार में जितने नगर देखे, उनमें से कोई भी उसे ठीक न जँचा।

एक दिन उसने हिमालय के दक्षिण तटवर्ती शिखरों पर कर्मभूमि भारतखण्ड में एक नौ द्वारों का नगर देखा। वह सब प्रकार के सुलक्षणों से सपन्न था। सब ओर से परकोटों, बगीचों, अटारियों, खाइयों, झरोखों और राजद्वारों से सुशोभित था और सोने, चाँदी तथा लोहे के शिखरों वाले विशाल भवनों से खचाखच भरा था। उसके महलों की फर्शें नीलम, स्फटिक, वैदूर्य, मोती, पन्ने और लालों की बनी हुई थीं। अपनी कान्ति के कारण वह नागों की राजधानी भोगवतीपुरी के समान जान पड़ता था। उसमें जहाँ-तहाँ अनेकों सभा-भवन, चौराहे, सड़कें, क्रीड़ाभवन, बाजार, विश्राम-स्थान, ध्वजा-पताकाएँ और मूँगे के चबूतरे सुशोभित थे। उस नगर के बाहर दिव्य वृक्ष और लताओं से पूर्ण एक सुन्दर बाग़ था; उसके बीच में एक सरोवर सुशोभित था। उसके आस-पास अनेकों पक्षी भाँति-भाँति की बोली बोल रहे थे तथा भौंरे गुंजार कर रहे थे। सरोवर के तट पर जो वृक्ष थे, उनकी डालियाँ और पत्ते शीतल झरनों के जलकणों से मिली हुई वासन्ती वायु के झरोकों से हिल रहे थे और इस प्रकार वे तटवर्ती भूमि की शोभा बढ़ा रहे थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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