श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-9

द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


भगवान के स्थूल और सूक्ष्मरूपों की धारणा तथा क्रममुक्ति और सद्योमुक्ति का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- सृष्टि के प्रारम्भ में ब्रह्मा जी ने इसी धारणा के द्वारा प्रसन्न हुए भगवान से वह सृष्टि विषयक स्मृति प्राप्त की थी जो पहले प्रलयकाल में विलुप्त हो गयी थी। इससे उनकी दृष्टि अमोघ और बुद्धि निश्चयात्मिका हो गयी, तब उन्होंने इस जगत् को वैसे ही रचा जैसा कि यह प्रलय के पहले था। वेदों की वर्णन शैली ही इस प्रकार की है कि लोगों की बुद्धि स्वर्ग आदि निरर्थक नामों के फेर में फँस जाती है, जीव वहाँ सुख की वासना में स्वप्न-सा देखता हुआ भटकने लगता है; किंतु उस मायामय लोकों में कहीं भी उसे सच्चे सुख की प्राप्ति नहीं होती। इसलिये विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह विविध नाम वाले पदार्थों से उतना ही व्यवहार करे, जितना प्रयोजननीय हो। अपनी बुद्धि को उनकी निस्सारता के निश्चय से परिपूर्ण रखे और एक क्षण के लिये भी असावधान न हो। यदि संसार के पदार्थ प्रारब्धवश बिना परिश्रम के यों ही मिल जायें, तब उनके उपार्जन का परिश्रम व्यर्थ समझकर उनके लिये कोई प्रयत्न न करे। जब जमीन पर सोने से काम चल सकता है, तब पलँग के लिये प्रयत्न करने से क्या प्रयोजन। जब भुजाएँ अपने को भगवान की कृपा से स्वयं ही मिली हुई हैं, तब तकियों की क्या आवश्यकता। जब अंजलि से काम चल सकता है, तब बहुत-से बर्तन क्यों बटोरें। वृक्ष की छाल पहनकर या वस्त्रहीन रहकर भी यदि जीवन धारण किया जा सकता है तो वस्त्रों की क्या आवश्यकता, पहनने को क्या रास्तों में चिथड़े नहीं हैं? भूख लगने पर दूसरों के लिये ही शरीर धारण करने वाले वृक्ष क्या फल-फूल की भिक्षा नहीं देते?

जल चाहने वालों के लिये नदियाँ क्या बिलकुल सूख गयी हैं? रहने के लिये क्या पहाड़ों की गुफाएँ बंद कर दी गयीं हैं? अरे भाई! सब न सही, क्या भगवान भी अपने शरणागतों की रक्षा नहीं करते? ऐसी स्थिति में बुद्धिमान लोग भी धन के नशे में चूर घमंडी धनियों की चापलूसी क्यों करते हैं?

इस प्रकार विरक्त हो जाने पर अपने हृदय में नित्य विराजमान, स्वतःसिद्ध, आत्मस्वरूप, परम प्रियतम, परम सत्य जो अनन्त भगवान हैं, बड़े प्रेम और आनन्द से दृढ़ निश्चय करके उन्हीं का भजन करें; क्योंकि उनके भजन से जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाले अज्ञान का नाश हो जाता है। पशुओं की बात तो अलग है; परन्तु मनुष्यों में भला ऐसा कौन है जो लोगों को इस संसाररूप वैतरणी नदी में गिरकर अपने कर्मजन्य दुःखों को भोगते हुए देखकर भी भगवान का मंगलमय चिन्तन नहीं करेगा, इन असत् विषय-भोगों में ही अपने चित्त को भटकने देगा?

कोई-कोई साधक अपने शरीर के भीतर हृदयाकाश में विराजमान भगवान के प्रादेशमात्र स्वरूप की धारणा करते हैं। वे ऐसा ध्यान करते हैं कि भगवान की चार भुजाओं में, शंख, चक्र, गदा और पद्म हैं। उनके मुख पर प्रसन्नता झलक रही है। कमल के समान विशाल और कोमल नेत्र हैं। कदम्ब के पुष्प की केसर के समान पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। भुजाओं में श्रेष्ठ रत्नों से जड़े हुए सोने के बाजूबंद शोभायमान हैं। सिर पर बड़ा ही सुन्दर मुकुट और कानों में कुण्डल हैं, जिनमें जड़े हुए बहुमूल्य रत्न जगमगा रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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