श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 1-15

षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


चित्रकेतु का वैराग्य तथा संकर्षणदेव के दर्शन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! तदनन्तर देवर्षि नारद ने मृत राजकुमार के जीवात्मा को शोकाकुल स्वजनों के सामने प्रत्यक्ष बुलाकर कहा।

देवर्षि नारद ने कहा- जीवात्मन्! तुम्हारा कल्याण हो। देखो, तुम्हारे माता-पिता, सुहृद्-सम्बन्धी तुम्हारे वियोग से अत्यन्त शोकाकुल हो रहे हैं। इसलिये तुम अपने शरीर में आ जाओ और शेष आयु अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ ही रहकर व्यतीत करो। अपने पिता के दिये हुए भोगों को भोगो और राजसिंहासन पर बैठो।

जीवात्मा ने कहा- देवर्षि जी! मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने जन्मों से भटक रहा हूँ। उनमें से ये लोग किस जन्म में मेरे माता-पिता हुए? विभिन्न जन्मों में सभी एक-दूसरे के भाई-बन्धु, नाती-गोती, शत्रु-मित्र, मध्यस्थ, उदासीन और द्वेषी होते रहते हैं। जैसे सुवर्ण आदि क्रय-विक्रय की वस्तुएँ एक व्यापारी से दूसरे के पास जाती-आती रहती हैं, वैसे ही जीव भी भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न होता रहता है। इस प्रकार विचार करने से पता लगता है कि मनुष्यों की अपेक्षा अधिक दिन ठहरने वाले सुवर्ण आदि पदार्थों का सम्बन्ध भी मनुष्यों के साथ स्थायी नहीं, क्षणिक ही होता है; और जब तक जिसका जिस वस्तु से सम्बन्ध रहता है, तभी तक उसकी उस वस्तु से ममता भी रहती है। जीव नित्य और अहंकार रहित है। वह गर्भ आकर जब तक जिस शरीर में रहता है, तभी तक उस शरीर को अपना समझता है। यह जीव नित्य अविनाशी, सूक्ष्म (जन्मादिरहित), सबका आश्रय और स्वयंप्रकाश है। इसमें स्वरूपतः जन्म-मृत्यु आदि कुछ भी नहीं हैं। फिर भी यह ईश्वररूप होने के कारण अपनी माया के गुणों से ही अपने-आपको विश्व के रूप में प्रकट कर देता है। इसका न तो कोई अत्यन्त प्रिय है और न अप्रिय, न अपना और न पराया। क्योंकि गुण-दोष (हित-अहित) करने वाले मित्र-शत्रु आदि की भिन्न-भिन्न बुद्धि-वृत्तियों का यह अकेला ही साक्षी हैं; वास्तव में यह अद्वितीय है। यह आत्मा कार्य-कारण का साक्षी और स्वतन्त्र है। इसलिये यह शरीर आदि के गुण-दोष अथवा कर्म फल को ग्रहण नहीं करता, सदा उदासीन भाव से स्थित रहता है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- वह जीवात्मा इस प्रकार कहकर चला गया। उसके सगे-सम्बन्धी उसकी बात सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए। उनका स्नेह-बन्धन कट गया और उसके मरने का शोक भी जाता रहा। इसके बाद जाति वालों ने बालक की मृत देह को ले जाकर तत्कालोचित संस्कार और्ध्वदैहिक क्रियाएँ पूर्ण कीं और उस दुस्त्यज स्नेह को छोड़ दिया, जिसके कारण शोक, मोह, भय और दुःख की प्राप्ति होती है।

परीक्षित! जिन रानियों ने बच्चे को विष दिया था, वे बालहत्या के कारण श्रीहीन हो गयी थीं और लज्जा के मारे आँख तक नहीं उठा सकती थीं। उन्होंने अंगिरा ऋषि के उपदेश को याद करके (मात्सर्यहीन हो) यमुना जी के तट पर ब्राह्मणों के आदेशानुसार बालहत्या का प्रायश्चित किया। परीक्षित! इस प्रकार अंगिरा और नारद जी के उपदेश के विवेकबुद्धि जाग्रत् हो जाने के कारण राजा चित्रकेतु घर-गृहस्थी के अँधेरे कुएँ से उसी प्रकार बाहर निकल पड़े, जैसे कोई हाथी तालाब के कीचड़ से निकल आये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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