श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 31 श्लोक 1-13

तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


मनुष्य योनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

श्रीभगवान् कहते हैं- माताजी! जब जीव को मनुष्य-शरीर में जन्म लेना होता है, तो वह भगवान् की प्रेरणा से अपने पूर्वकर्मानुसार देहप्राप्ति के लिये पुरुष के वीर्यकण के द्वारा स्त्री के उदर में प्रवेश करता है। वहाँ वह एक रात्रि में स्त्री के रज में मिलकर एकरूप कलल बन जाता है, पाँच रात्रि में बुद्बुदरूप हो जाता है, दस दिन में बेर के समान कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियों में अण्डे के रूप में परिणत हो जाता है। एक महीने में उसके सिर निकल आता है, दो मास में हाथ-पाँव आदि अंगों का विभाग हो जाता है और तीन मास में नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुष के चिह्न तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं।

चार मास में उसमें मांसादि सातों धातुएँ पैदा हो जाती हैं, पाँचवें महीने में भूख-प्यास लगने लगती है और छठे मास में झिल्ली से लिपटकर वह दाहिनी कोख में घूमने लगता है। उस समय माता के खाये हुए अन्न-जल आदि से उसकी सब धातुएँ पुष्ट होने लगती हैं और वह कृमि आदि जंतुओं के उत्पत्ति स्थान उस जघन्य मल-मूत्र के गढ़े में पड़ा रहता है। वह सुकुमार तो होता ही है; इसलिये जब वहाँ के भूखे कीड़े उसके अंग-प्रत्यंग नोचते हैं, तब अत्यन्त क्लेश के कारण वह क्षण-क्षण में अचेत हो जाता है। माता के खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे और खट्टे आदि उग्र पदार्थों का स्पर्श होने से उसके सारे शरीर में पीड़ा होने लगती है। वह जीव माता के गर्भाशय में झिल्ली से लिपटा और आँतों से घिरा रहता है। उसका सिर पेट की ओर तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं। वह पिंजड़े में बंद पक्षी के समान पराधीन एवं अंगों को हिलाने-डुलाने में भी असमर्थ रहता है। इसी समय अदृष्ट की प्रेरणा से उसे स्मरणशक्ति प्राप्त होती है। तब अपने सैकड़ों जन्मों के कर्म याद आ जाते हैं और वह बेचैन हो जाता है तथा उसका दम घुटने लगता है। ऐसी अवस्था में उसे क्या शान्ति मिल सकती है?

सातवाँ महीना आरम्भ होने पर उसमें ज्ञान-शक्ति का भी उन्मेष हो जाता है; परन्तु प्रसूतिवायु से चलायमान रहने के कारण वह उसी उदर में उत्पन्न हुए विष्ठा के कीड़ों के समान एक स्थान पर नहीं रह सकता। तब सप्तधातुमय स्थूल शरीर से बँधा हुआ वह देहात्मदर्शीजीव अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणी से कृपा-याचना करता हुआ, हाथ जोड़कर उस प्रभु की स्तुति करता है, जिसने उसे माता के गर्भ में डाला है।

जीव कहता है- मैं बड़ा अधम हूँ; भगवान् ने मुझे जो इस प्रकार की गति दिखायी है, वह मेरे योग्य ही है। वे अपनी शरण में आये हुए इस नश्वर जगत् की रक्षा के लिये ही अनेक प्रकार के रूप धारण करते हैं; अतः मैं भी भूतल पर विचरण करने वाले उन्हीं के निर्भय चरणारविन्दों की शरण लेता हूँ। जो मैं (जीव) इस माता के उदर में देह, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूपा माया का आश्रय कर पुण्य-पापरूप कर्मों से आच्छादित रहने के कारणबद्ध की तरह हूँ, वही मैं यहीं अपने सन्तप्त हृदय में प्रतीत होने वाले उन विशुद्ध (उपाधिरहित), अविकारी और अखण्ड बोधस्वरूप परमात्मा को नमस्कार करता हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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