श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 81 श्लोक 1-14

दशम स्कन्ध: एकशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकशीतितम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


सुदामा जी को ऐश्वर्य की प्राप्ति

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सबके मन की बात जानते हैं। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, उनके क्लेशों के नाशक और संतों के एकमात्र आश्रय हैं। वे पूर्वोक्त प्रकार से उन ब्राह्मण देवता के साथ बहुत देर तक बीतचीत करते रहे। अब वे अपने प्यारे सखा उन ब्राह्मण से तनिक मुसकराकर विनोद करते हुए बोले। उस समय भगवान उन ब्राह्मण देवता की ओर प्रेमभरी दृष्टि से देख रहे थे।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- ‘ब्रह्मन्! आप अपने घर से मेरे लिए क्या उपहार लाये हैं? मेरे प्रेमी भक्त जब प्रेम से थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं तो वह मेरे लिए बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते हैं तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता। जो पुरुष प्रेमभक्ति के फल-फूल अथवा पत्ता-पानी में से कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है, तो मैं उस शुद्धचित्त भक्त का वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि तुरंत भोग लगा लेता हूँ’।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर भी उन ब्राह्मण देवता ने लज्जावश उन लक्ष्मीपति को वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने संकोच से अपना मुँह नीचे कर लिया था। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के हृदय का एक-एक संकल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मण के आने का कारण, उनके हृदय की बात जान ली। अब वे विचार करने लगे की ‘एक तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इसने पहले कभी लक्ष्मी की कामना से मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नी को प्रसन्न करने के लिये उसी के आग्रह से यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओं के लिये भी अत्यंत दुर्लभ है’।

भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा विचार करके उनके वस्त्र में से चिथड़े की एक पोटली में बँधा हुआ चिउड़ा ‘यह क्या है’- ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया और बड़े आदर से कहने लगे- ‘प्यारे मित्र! यह तो तुम मेरे लिए अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसार को तृप्त करने के लिए पर्याप्त हैं’। ऐसा कहकर उसमें से एक मुट्ठी चिउड़ा खा गए और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी त्यों ही रुक्मिणी जी के रूप में स्वयं भगवती लक्ष्मी जी ने भगवान श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया। क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान के परायण हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं जा नहीं सकतीं।

रुक्मिणी जी ने कहा- ‘विश्वात्मन्! बस, बस! मनुष्य को इस लोक में तथा मरने के बाद परलोक में भी समस्त संपत्तियों की समृद्धि प्राप्त करने के लिए यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है; क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नता का हेतु बन जाता है’।

परीक्षित! ब्राह्मण देवता उस रात को भगवान श्रीकृष्ण के महल में ही रहे। उन्होंने बड़े आराम से वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठ में ही पहुँच गया हूँ। परीक्षित! श्रीकृष्ण से ब्राह्मण को प्रत्यक्षरूप में कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं। वे अपने चित्त की करतूत पर कुछ लज्जित-से होकर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनजनित आनन्द में डूबते-उतराते अपने घर की और चल पड़े।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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