श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 1-16

षष्ठ स्कन्ध: सप्तदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


चित्रकेतु को पार्वती जी का शाप

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! विद्याधर चित्रकेतु, जिस दिशा में भगवान् संकर्षण अन्तर्धान हुए थे, उसे नमस्कार करके आकाश मार्ग से स्वच्छन्द विचरने लगे। महायोगी चित्रकेतु करोड़ों वर्षों तक सब प्रकार के संकल्पों को पूर्ण करने वाली सुमेरु पर्वत की घाटियों में विहार करते रहे। उनके शरीर का बल और इन्द्रियों की शक्ति अक्षुण्ण रही। बड़े-बड़े मुनि, सिद्ध, चारण उनकी स्तुति करते रहते। उनकी प्रेरणा से विद्याधरों की स्त्रियाँ उनके पास सर्वशक्तिमान् भगवान् के गुण और लीलाओं का गान करती रहतीं।

एक दिन चित्रकेतु भगवान् के दिये हुए तेजोमय विमान पर सवार होकर कहीं जा रहे थे। इसी समय उन्होंने देखा कि भगवान् शंकर बड़े-बड़े मुनियों की सभा में सिद्ध-चारणों के बीच बैठे हुए हैं और साथ ही भगवती पार्वती को अपनी गोद में बैठाकर एक हाथ से उन्हें आलिंगन किये हुए हैं, यह देखकर चित्रकेतु विमान पर चढ़े हुए ही उनके पास चले गये और भगवती पार्वती को सुना-सुनाकर जोर से हँसने और कहने लगे।

चित्रकेतु ने कहा- अहो! ये सारे जगत् के धर्म शिक्षक और गुरुदेव हैं। ये समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ हैं। इनकी यह दशा है कि भरी सभा में अपनी पत्नी को शरीर से चिपकाकर बैठे हुए हैं। जटाधारी, बहुत बड़े तपस्वी एवं ब्रह्मवादियों के सभापति होकर भी साधारण पुरुष के समान निर्लज्जता से गोद में स्त्री लेकर बैठे हैं। प्रायः साधारण पुरुष भी एकान्त में ही स्त्रियों के साथ उठते-बैठते हैं, परन्तु ये इतने बड़े व्रतधारी होकर भी उसे भरी सभा में लिये बैठे हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान् शंकर की बुद्धि अगाध है। चित्रकेतु का यह कटाक्ष सुनकर वे हँसने लगे, कुछ भी बोले नहीं। उस सभा में बैठे हुए उनके अनुयायी सदस्य भी चुप रहे। चित्रकेतु को भगवान् शंकर का प्रभाव नहीं मालूम था। इसी से वे उनके लिये बहुत कुछ बुरा-भला बक रहे थे। उन्हें इस बात का घमण्ड हो गया था कि ‘मैं जितेन्द्रिय हूँ।’

पार्वती जी ने उनकी यह धृष्टता देखकर क्रोध से कहा। पार्वती जी बोलीं- अहो! हम-जैसे दुष्ट और निर्लज्जों का दण्ड के बल पर शासन एवं तिरस्कार करने वाला प्रभु इस संसार में यही है क्या? जान पड़ता है कि ब्रह्मा जी, भृगु, नारद आदि उनके पुत्र, सनकादि परमर्षि, कपिलदेव और मनु आदि बड़े-बड़े महापुरुष धर्म का रहस्य नहीं जानते। तभी तो वे धर्म मर्यादा का उल्लंघन करने वाले भगवान् शिव को इस काम से नहीं रोकते। ब्रह्मा आदि समस्त महापुरुष जिनके चरणकमलों का ध्यान करते रहते हैं, उन्हीं मंगलों को मंगल बनाने वाले साक्षात् जगद्गुरु भगवान् का और उनके अनुयायी महात्माओं का इस अधम क्षत्रिय ने तिरस्कार किया है और शासन करने की चेष्टा की है। इसलिये यह ढीठ सर्वथा दण्ड का पात्र है। इसे अपने बड़प्पन का घमण्ड है। यह मूर्ख भगवान् श्रीहरि के उन चरणकमलों में रहने योग्य नहीं है, जिनकी उपासना बड़े-बड़े सत्पुरुष किया करते हैं।

[चित्रकेतु को सम्बोधन कर] अतः दुर्मते! तुम पापमय असुर योनि में जाओ। ऐसा होने से बेटा! तुम फिर कभी किसी महापुरुष का अपराध नहीं कर सकोगे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब पार्वती जी ने इस प्रकार चित्रकेतु को शाप दिया, तब वे विमान से उतर पड़े और सिर झुकाकर उन्हें प्रसन्न करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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