दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! सर्वात्मा भक्तभयहारी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी पत्नियों का कितना प्रेम है- यह बात कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, दूसरी राजपत्नियों और भगवान की प्रियतमा गोपियों ने भी सुनी। सब-की-सब उनका यह अलौकिक प्रेम देखकर अत्यन्त मुग्ध, अत्यन्त विस्मित हो गयीं। सबके नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। इस प्रकार जिस समय स्त्रियों से स्त्रियाँ और पुरुषों से पुरुष बातचीत कर रहे थे, उसी समय बहुत-से ऋषि-मुनि भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी का दर्शन करने के लिये वहाँ आये। उनमें प्रधान ये थे- श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज, गौतम, अपने शिष्यों के सहित भगवान परशुराम, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार , अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य और वामदेव इत्यादि। ऋषियों को देखकर पहले से बैठे हुए नरपतिगण, युधिष्ठिर आदि पाण्डव, भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सहसा उठकर खड़े हो गये और सब ने उन विश्ववन्दित ऋषियों को प्रणाम किया। इसके बाद स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, पुष्पमाला, धूप और चन्दन आदि से सब राजाओं ने तथा बलराम जी के साथ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन सब ऋषियों की विधिपूर्वक पूजा की। जब सब ऋषि-मुनि आराम से बैठ गये, तब धर्मरक्षा के लिये अवतीर्ण भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा। उस समय वह बहुत बड़ी सभा चुपचाप भगवान का भाषण सुन रही थी। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- धन्य है! हम लोगों का जीवन सफल हो गया, आज जन्म लेने का हमें पूरा-पूरा फल मिल गया; क्योंकि जिन योगेश्वरों का दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, उन्हीं का दर्शन हमें प्राप्त हुआ है। जिन्होंने बहुत थोड़ी तपस्या की है और जो लोग अपने इष्टदेव को समस्त प्राणियों के हृदय में न देखकर केवल मूर्ति विशेष में ही उनका दर्शन करते हैं, उन्हें आप लोगों के दर्शन, स्पर्श, कुशल-प्रश्न, प्रणाम और पादपूजन आदि का सुअवसर भला कब मिल सकता है? केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत पुरुष ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका बहुत समय तक सेवन किया जाये, तब वे पवित्र हैं; परन्तु संत पुरुष तो दर्शन मात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं। अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मन के अधिष्ठातृ-देवता उपासना करने पर भी पाप का पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासना से भेद-बुद्धि का नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषों की सेवा की जाये तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धि के विनाशक हैं। महात्माओ और सभासदो! जो मनुष्य वात, पित्त और कफ- इन तीन धातुओं से बने हुए शवतुल्य शरीर को ही आत्मा-अपना, ‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ, आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है- ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में भी नीच गधा ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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