श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-12

सप्तम स्कन्ध: षष्ठोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


प्रह्लाद जी का असुर-बालकों को उपदेश

प्रह्लाद जी ने कहा- मित्रो! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। परन्तु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाये; इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरोसे न रहकर बचपन में ही भगवान् की प्राप्ति कराने वाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिये। इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान् के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान् समस्त प्राणियों के स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं।

भाइयों! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तो- जीव चाहे जिस योनि में रहे- प्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करने पर भी दुःख मिलता है। इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलने वाली वस्तु के लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान् के परम कल्याणस्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती। हमारे सिर पर अनेकों प्रकार के भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीर-जो भगवत्प्राप्ति के लिये पर्याप्त है-जब तक रोग-शोकादि ग्रस्त होकर मृत्यु के मुख में नहीं चला जाता, तभी तक बुद्धिमान् पुरुष को अपने कल्याण के लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये।

मनुष्य की पूरी आयु सौ वर्ष की है। जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर लिया है, उनकी आयु का आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रात में घोर तमोगुण-अज्ञान से ग्रस्त होकर सोते रहते हैं। बचपन में उन्हें अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होने पर कुमार अवस्था में वे खेल-कूद में लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्ष का तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीर को ग्रस लेता है, तब अन्त के बीस वर्षों में कुछ करने-धरने की शक्ति ही नहीं रह जाती। रह गयी बीच की कुछ थोड़ी-सी आयु। उसमें कभी न पूरी होने वाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखने वाला मोह है और घर-द्वार की वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथ से निकल जाती है।

दैत्य बालकों! जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थी में आसक्त और माया-ममता की मजबूत फाँसी में फँसे हुए अपने-आपको उससे छुड़ाने का साहस कर सके। जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणों की भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणों से भी अधिक वांछनीय है-उस धन की तृष्णा को भला कौन त्याग सकता है। जो अपनी प्रियतमा पत्नी के एकान्त सहवास, उसकी प्रेम भरी बातों और मीठी-मीठी सलाह पर अपने को निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु और मित्रों के स्नेह-पाश में बँध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओं की तोतली बोली पर लुभा चुका है- भला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है। जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत जीविका के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला-उन्हें कैसे छोड़ सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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