श्रीमद्भागवत महापुराण द्वितीय स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-11

द्वितीय स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वितीय स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मा जी का भगवद्धाम दर्शन और भगवान् के द्वारा उन्हें चतुःश्लोकी भागवत का उपदेश

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जैसे स्वप्न में देखे जाने वाले पदार्थों के साथ उसे देखने वाले का कोई सबंध नहीं होता, वैसे ही देहादि से अतीत अनुभवस्वरूप आत्मा का माया के बिना दृश्य पदार्थों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। विविध रूप वाली माया के कारण वह विविध रूप वाला प्रतीत होता है और जब उसके गुणों में रम जाता है, तब ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस प्रकार मानने लगता है। किन्तु जब यह गुणों के क्षुब्ध करने वाले काल और मोह उत्पन्न करने वाली माया- इन दोनों से परे अपने अनन्त स्वरूप में मोहरहित होकर रमण करने लगता है- आत्माराम हो जाता है; तब यह ‘मैं, मेरा’ का भाव छोड़कर पूर्ण उदासीन-गुणातीत हो जाता है। ब्रह्मा जी की निष्कपट तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपने रूप का दर्शन कराया और आत्मतत्त्व के ज्ञान के लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तु का उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ)।

तीनों लोकों के परम गुरु आदिदेव ब्रह्मा जी अपने जन्म स्थान कमल पर बैठकर सृष्टि करने की इच्छा से विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञान दृष्टि से सृष्टि का निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि-व्यापार के लिये वांछनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई। एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलय के समुद्र में उन्होंने व्यंजनों के सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर ‘त’ तथा ‘प’ को- ‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित! महात्मा लोग इस तप की को ही त्यागियों का धन मानते हैं। यह सुनकर ब्रह्मा जी ने वक्ता को देखने की इच्छा से चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमल पर बैठ गये और ‘मुझे तप करने की प्रत्यक्ष आज्ञा मिली है’ ऐसा निश्चय कर और उसी में अपना हित समझकर उन्होंने अपने मन को तपस्या में लगा दिया।

ब्रह्मा जी तपस्वियों में सबसे बड़े तपस्वी हैं। उनका ज्ञान अमोघ है। उन्होंने एक समय एक सहस्र दिव्य वर्ष पर्यन्त एकाग्रचित्त से अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियों को वश में करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकों को प्रकाशित करने में समर्थ हो सके। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है। उस लोक में किसी भी प्रकार के क्लेश, मोह और भय नहीं हैं। जिन्हें कभी एक बार भी उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार-बार उनकी स्तुति करते रहते हैं। वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इनसे मिला हुआ सत्त्वगुण भी नहीं है। वहाँ न काल की दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती है; फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। वहाँ भगवान् के वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं। उनका उज्ज्वल आभा से युक्त श्याम शरीर शतदल कमल के समान कोमल नेत्र और पीले रंग के वस्त्र से शोभायमान है। अंग-अंग से राशि-राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है। वे कोमलता की मूर्ति हैं। सभी के चार-चार भुजाएँ हैं। वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्ण के प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं। उनकी छवि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमल के उज्ज्वल तन्तु के समान हैं। उनके कानों में कुण्डल, मस्तक पर मुकुट और कण्ठ में मालाएँ शोभायमान हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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