श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 1-11

एकादश स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


हंसरूप से सनकादि को दिये हुए उपदेश का वर्णन

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- प्रिय उद्धव! सत्त्व, रज और तम-ये तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्मा के नहीं। सत्त्व के द्वारा रज और तम-इन दो गुणों पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये। तदनन्तर सत्त्वगुण की शान्तवृत्ति के द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियों को भी शान्त कर देना चाहिये। जब सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, तभी जीव को मेरे भक्तिरूप स्वधर्म की प्राप्ति होती है। निरन्तर सात्त्विक वस्तुओं का सेवन करने से सत्त्वगुण की वृद्धि होती है और तब मेरे भक्तिरूप स्वधर्म में प्रवृत्ति होने लगती है। जिस धर्म के पालन से सत्त्वगुण की वृद्धि हो, वही सबसे श्रेष्ठ है। वह धर्म रजोगुण और तमोगुण को नष्ट कर देता है। जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब उन्हीं के कारण होने वाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है। शास्त्र, जल, प्रजाजन, देश, समय, कर्म, जन्म, ध्यान, मन्त्र और संस्कार-ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुण की, राजसिक हों तो रजोगुण की और तामसिक हों तो तमोगुणी वृद्धि करती है। इसमें से शास्त्रज्ञ महात्मा जिनकी प्रशंसा करते हैं, वे सात्त्विक हैं, जिनकी निन्दा करते हैं, वे तामसिक हैं और जिनकी उपेक्षा करते हैं, वे वस्तुएँ राजसिक हैं।

जब तक अपने आत्मा का साक्षात्कार तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर और उनके कारण तीनों गुणों की निवृत्ति न हो, तब तक मनुष्य को चाहिये कि सत्त्वगुण की वृद्धि के लिये सात्त्विक शास्त्र आदि का ही सेवन करे; क्योंकि उससे धर्म की वृद्धि होती है और धर्म की वृद्धि से अन्तःकरण शुद्ध होकर आत्मतत्त्व का ज्ञान होता है। बाँसों की रगड़ से आग पैदा होती है और वह उनके सारे वन को जलाकर शान्त हो जाती है। वैसे ही यह शरीर गुणों के वैषम्य से उत्पन्न हुआ है। विचार द्वारा मन्थन करने पर इससे ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है और वह समस्त शरीरों एवं गुणों को भस्म करके स्वयं भी शान्त हो जाती है।

उद्धव जी ने पूछा- 'भगवन्! प्रायः सभी मनुष्य इस बात को जानते हैं कि विषय विपत्तियों के घर हैं; फिर भी कुत्ते, गधे और बकरे के समान दुःख सहन करके भी उन्हीं को भोगते रहते हैं। इसका क्या कारण है?'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय उद्धव! जीव जब अज्ञानवश अपने स्वरूप को भूलकर हृदय से सूक्ष्म-स्थूलादि शरीर में अहं बुद्धि कर बैठता है-जो कि सर्वथा भ्रम ही है-तब उसका सत्त्वप्रधान मन घोर रजोगुण की ओर झुक जाता है; उससे व्याप्त हो जाता है। बस, जहाँ मन में रजोगुण की प्रधानता हुई कि उसमें संकल्प-विकल्पों का ताँता बँध जाता है। अब वह विषयों का चिन्तन करने लगता है और अपनी दुर्बुद्धि के कारण काम के फंदे में फँस जाता है, जिससे फिर छुटकारा होना बहुत ही कठिन है। अब वह अज्ञानी कामवश अनेकों प्रकार के कर्म करने लगता है और इन्द्रियों के वश होकर, यह जानकार भी कि इन कर्मों का अन्तिम फल दुःख ही है, उन्हीं को करता है, उस समय वह रजोगुण के तीव्र वेग से अत्यन्त मोहित रहता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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