श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 1-14

अष्टम स्कन्ध: षोडशोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


कश्यप जी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब देवता इस प्रकार भागकर छिप गये और दैत्यों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया; तब देवमाता अदिति को बड़ा दुःख हुआ। वे अनाथ-सी हो गयीं।

एक बार बहत दिनों के बाद जब परम प्रभावशाली कश्यप मुनि की समाधि टूटी, तब वे अदिति के आश्रम पर आये। उन्होंने देखा कि न तो वहाँ सुख-शान्ति है और न किसी प्रकार का उत्साह या सजावट ही।

परीक्षित! जब वे वहाँ जाकर आसन पर बैठ गये और अदिति ने विधिपूर्वक उनका सत्कार कर लिया, तब वे अपनी पत्नी अदिति से-जिसके चेहरे पर बड़ी उदासी छायी हुई थी, बोले- ‘कल्याणी! इस समय संसार में ब्राह्मणों पर कोई विपत्ति तो नहीं आयी है? धर्म का पालन तो ठीक-ठीक होता है? काल के कराल गाल में पड़े हुए लोगों का कुछ अमंगल तो नहीं हो रहा है?

प्रिये! गृहस्थाश्रम तो, जो लोग योग नहीं कर सकते, उन्हें भी योग का फल देने वाला है। इस गृहस्थाश्रम में रहकर धर्म, अर्थ और काम के सेवन में किसी प्रकार विघ्न तो नहीं हो रह है? यह भी सम्भव है कि तुम कुटुम्ब के भरण-पोषण में व्यग्र रही हो, अतिथि आये हों और तुमसे बिना सम्मान पाये ही लौट गये हों; तुम खड़ी होकर उनका सत्कार करने में भी असमर्थ रही हो। इसी से तो तुम उदास नहीं हो रही हो? जिन घरों में आये हुए अतिथि का जल से भी सत्कार नहीं किया जाता और वे ऐसे ही लौट जाते हैं, वे घर अवश्य ही गीदड़ों के घर के समान हैं।

प्रिये! सम्भव है, मेरे बाहर चले जाने पर कभी तुम्हारा चित्त उद्विग्न रहा हो और समय पर तुमने हविष्य से अग्नियों में हवन न किया हो। सर्वदेवमय भगवान् के मुख हैं-ब्राह्मण और अग्नि। गृहस्थ पुरुष यदि इन दोनों की पूजा करता है तो उसे उन लोकों की प्राप्ति होती है, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। प्रिये! तुम तो सर्वदा प्रसन्न रहती हो; परन्तु तुम्हारे बहुत-से लक्षणों से मैं देखा रहा हूँ कि इस समय तुम्हारा चित्त अस्वस्थ है। तुम्हारे सब लड़के तो कुशल-मंगल से हैं न?

अदिति ने कहा- भगवन! ब्राह्मण, गौ, धर्म और आपकी यह दासी-सब कुशल हैं। मेरे स्वामी! यह गृहस्थ-आश्रम ही अर्थ, धर्म और काम की साधना में परम सहायक है। प्रभो! आपके निरन्तर स्मरण और कल्याण-कामना से अग्नि, अतिथि, सेवक, भिक्षुक और दूसरे याचकों का भी मैंने तिरस्कार नहीं किया है। भगवन! जब आप-जैसे प्रजापति मुझे इस प्रकार धर्म पालन का उपदेश करते हैं; तब भला मेरे मन की ऐसी कौन-सी कामना है जो पूरी न हो जाये? आर्यपुत्र! समस्त प्रजा-वह चाहे सत्त्वगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी हो-आपकी ही सन्तान है। कुछ आपके संकल्प से उत्पन्न हुए हैं और कुछ शरीर से। भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि आप सब सन्तानों के प्रति-चाहे असुर हों या देवता-एक-सा भाव रखते हैं, सम हैं। तथापि स्वयं परमेश्वर भी अपने भक्तों की अभिलाषा पूर्ण किया करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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