श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 1-13

तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


उद्धव और विदुर की भेंट

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जो बात तुमने पूछी है, वही पूर्वकाल में अपने सुख-समृद्धि से पूर्ण घर को छोड़कर वन में गये हुए विदुर जी ने भगवान् मैत्रेय जी से पूछी थी। जब सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत बनकर गये थे, तब वे दुर्योधन के महलों को छोड़कर, उसी विदुर जी के घर में उसे अपना ही समझकर बिना बुलाये चले गये थे।

राजा परीक्षित ने पूछा- प्रभो! यह तो बतलाइये कि भगवान् मैत्रेय के साथ विदुर जी का समागम कहाँ और किस समय हुआ था? पवित्रात्मा विदुर ने महात्मा मैत्रेय जी से कोई साधारण प्रश्न नहीं किया होगा; क्योंकि उसे तो मैत्रेय जी-जैसे साधुशिरोमणि ने अभिनन्दनपूर्वक उत्तर देकर महिमान्वित किया था।

सूत जी कहते हैं- सर्वज्ञ शुकदेव जी ने राजा परीक्षित के इस प्रकार पूछने पर अति प्रसन्न होकर कहा-सुनो।

श्रीशुकदेव जी कहने लगे- परीक्षित! यह उन दिनों की बात है, जब अन्धे राजा धृतराष्ट्र ने अन्यायपूर्वक अपने दुष्ट पुत्रों का पालन-पोषण करते हुए अपने छोटे भाई पाण्डु के अनाथ बालकों को लाक्षाभवन में भेजकर आग लगवा दी। जब उनकी पुत्रवधू और महाराज युधिष्ठिर की पटरानी द्रौपदी के केश दुःशासन ने भरी सभा में खींचे, उस समय द्रौपदी की आँखों से आँसुओं की धारा बह चली और उस प्रवाह से उसके वक्षःस्थल लगा हुआ केसर भी बह चला; किन्तु धृतराष्ट्र ने अपने पुत्र को उस कुकर्म से नहीं रोका। दुर्योधन ने सत्यपरायण और भोले-भाले युधिष्ठिर का राज्य जुए में अन्याय से जीत लिया और उन्हें वन में निकाल दिया। किन्तु वन से लौटने पर प्रतिज्ञानुसार जब उन्होंने अपना न्यायोचित पैतृक भाग माँगा, तब भी मोहवश उन्होंने उन अजातशत्रु युधिष्ठिर को उनका हिस्सा नहीं दिया। महाराज युधिष्ठिर के भेजने पर जब जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण ने कौरवों की सभा में हित भरे सुमधुर वचन कहे, जो भीष्मादि सज्जनों को अमृत-से लगे, पर कुरुराज ने उनके कथन को कुछ भी आदर नहीं दिया। देते कैसे? उनके तो सारे पुण्य नष्ट हो चुके थे। फिर जब सलाह के लिये विदुर जी को बुलाया गया, तब मन्त्रियों में श्रेष्ठ विदुर जी ने राज्यभवन में जाकर बड़े भाई धृतराष्ट्र के पूछने पर उन्हें वह सम्मति दी, जिसे नीति-शास्त्र के जानने वाले पुरुष ‘विदुरनीति’ कहते हैं।

उन्होंने कहा- ‘महाराज! आप अजातशत्रु महात्मा युधिष्ठिर को उनका हिस्सा दे दीजिये। वे आपके न सहने योग्य अपराध को भी सह रहे है। भीमरूप काले नाग से तो आप भी बहुत डरते हैं; देखिये, वह अपने छोटे भाइयों के सहित बदला लेने के लिये बड़े क्रोध से फुफकारें मार रहा है। आपको पता नहीं, भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को अपना लिया है। वे यदुवीरों के आराध्यदेव इस समय अपनी राजधानी द्वारकापुरी में विराजमान हैं। उन्होंने पृथ्वी के सभी बड़े-बड़े राजाओं को अपने अधीन कर लिया है तथा ब्राह्मण और देवता भी उन्हीं के पक्ष में हैं। जिसे आप पुत्र मानकर पाल रहे हैं तथा जिसकी हाँ-में-हाँ मिलाते जा रहे हैं, उस दुर्योधन के रूप में तो मुर्तिमान् दोष ही आपके घर में घुसा बैठा है। यह तो साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण से द्वेष करने वाला है। इसी के कारण आप भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख होकर श्रीहीन हो रहे हैं। अतएव यदि आप अपने कुल की कुशल चाहते हैं तो इस दुष्ट को तुरन्त ही त्याग दीजिये’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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