श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 11 श्लोक 1-16

द्वादश स्कन्ध: एकादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


भगवान के अंग, उपांग और आयुधों का रहस्य तथा विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन

शौनक जी ने कहा- सूत जी! आप भगवान के परम भक्त और बहुज्ञों में शिरोमणि हैं। हम लोग समस्त शास्त्रों के सिद्धान्त के सम्बन्ध में आप से एक विशेष प्रश्न पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं। हम लोग क्रियायोग का यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलतापूर्वक ठीक-ठीक आचरण करने से मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अतः आप हमें यह बतलाइये कि पांचरात्रादि तन्त्रों कि विधि जानने वाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वों से उनके चरणादि अंग, गरुड़ादि उपांग, सुरदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणों की कल्पना करते हैं? भगवान आपका कल्याण करें।

सूत जी ने कहा- शौनक जी! ब्रह्मादि आचार्यों ने, वेदों ने और पांचरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थों ने विष्णु भगवान की जिन विभूतियों का वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेव के चरणों में नमस्कार करके आप लोगों को वही सुनाता हूँ। भगवान के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूप में यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा-इन नौ तत्त्वों के सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पंचभूत-इन सोलह विकारों से बना हुआ है। यह भगवान का ही पुरुष रूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं। प्रजापति लिंग है, मृत्यु गुदा है, लोकपाल गण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहें हैं। लज्जा ऊपर का होठ है, लोभ नीचे का होठ है, चन्द्रमा की चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुस्कान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुष के सिर पर उगे हुए बाल हैं। शौनक जी! जिस प्रकार यह व्यष्टिपुरुष अपने परिमाण से सात बित्ते का है उसी प्रकार वह समष्टिपुरुष भी इस लोक संस्थिति के साथ अपने सात बित्ते का है।

स्वयं भगवान अजन्मा हैं। वे कौस्तुभ मणि के बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्म ज्योति को ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभा को ही वक्षःस्थल पर श्रीवत्स रूप से। वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणों वाली माया को वनमाला के रूप से, छन्द को पीताम्बर के रूप से तथा अ+उ+म्-इन तीन मात्रा वाले प्रणव को यज्ञोपवीत के रूप में धारण करते हैं। देवाधिदेव भगवान सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकों को अभय करने वाले ब्रह्मलोक को ही मुकुट के रूप में धारण करते हैं। मूल प्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिस पर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादि युक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभि-कमल के रूप में वर्णित हुआ है। वे मन, इन्द्रिय और शरीर सम्बन्धी शक्तियों से युक्त प्राण-तत्त्वरूप कौमोद की गदा, जल तत्त्वरूप पांचजन्य शंख और तेजस्तत्त्व रूप सुदर्शन चक्र को धारण करते हैं। आकाश के समान निर्मल आकाश स्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शारंग धनुष और कर्म का ही तरकस धारण किये हुए हैं। इन्द्रियों को ही भगवान के बाणों के रूप में कहा गया है। क्रियाशक्ति युक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथ के बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदि की मुद्राओं से उनकी वरदान, अभयदान आदि के रूप में क्रियाशीलता प्रकट होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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