श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 14 श्लोक 1-16

षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


वृत्रासुर का पूर्व चरित्र

राजा परीक्षित ने कहा- भगवन्! वृत्रासुर का स्वभाव तो बड़ा रजोगुणी-तमोगुणी था। वह देवताओं को कष्ट पहुँचाकर पाप भी करता ही था। ऐसी स्थिति में भगवान् नारायण के चरणों में उसकी सुदृढ़ भक्ति कैसे हुई? हम देखते हैं, प्रायः शुद्ध सत्त्वमय देवता और पवित्रहृदय ऋषि भी भगवान् की परमप्रेममयी अनन्य भक्ति से वंचित ही रह जाते हैं। सचमुच भगवान् की भक्ति बड़ी दुर्लभ है।

भगवन्! इस जगत् के प्राणी पृथ्वी के धूलिकणों के समान ही असंख्य हैं। उसमें से कुछ मनुष्य आदि श्रेष्ठ जीव ही अपने कल्याण की चेष्टा करते हैं।

ब्रह्मन्! उसमें भी संसार से मुक्ति चाहने वाले तो बिरले ही होते हैं और मोक्ष चाहने वाले हजारों में मुक्ति या सिद्धि लाभ तो कोई-सा ही कर पाता है।

महामुने! करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषों में भी वैसे शान्तचित्त महापुरुष का मिलना तो बहुत ही कठिन है, जो एकमात्र भगवान् के ही परायण हो। ऐसी अवस्था में वह वृत्रासुर, जो सब लोगों को सताता था और बड़ा पापी था, उस भयंकर युद्ध के अवसर पर भगवान् श्रीकृष्ण में अपनी वृत्तियों को इस प्रकार दृढ़ता से लगा सका-इसका क्या कारण है? प्रभो! इस विषय में हमें बहुत अधिक सन्देह है और सुनने का बड़ा कौतूहल भी है। अहो, वृत्रासुर का बल-पौरुष कितना महान् था कि उसने रणभूमि में देवराज इन्द्र को भी सन्तुष्ट कर दिया।

सूत जी कहते हैं- शौनकादि ऋषियों! भगवान् शुकदेव जी ने परम श्रद्धालु राजर्षि परीक्षित का यह श्रेष्ठ प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन करते हुए यह बात कही।

श्रीशुकदेव जी ने कहा- परीक्षित! तुम सावधान होकर यह इतिहास सुनो। मैंने इसे अपने पिता व्यास जी, देवर्षि नारद और महर्षि देवल के मुँह से भी विधिपूर्वक सुना है।

प्राचीन काल की बात है, शूरसेन देश में चक्रवर्ती सम्राट् महाराज चित्रकेतु राज्य करते थे। उनके राज्य में पृथ्वी स्वयं ही प्रजा के इच्छा के अनुसार अन्न-रस दे दिया करती थी। उनके एक करोड़ रानियाँ थीं और ये स्वयं सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ भी थे। परन्तु उन्हें उनमें से किसी के भी गर्भ से कोई सन्तान न हुई। यों महाराज चित्रकेतु को किसी बात की कमी न थी। सुन्दरता, उदारता, युवावस्था, कुलीनता, विद्या, ऐश्वर्य और सम्पत्ति आदि सभी गुणों से वे सम्पन्न थे। फिर भी उनकी पत्नियाँ बाँझ थीं, इसलिये उन्हें बड़ी चिन्ता रहती थी। वे सारी पृथ्वी के एकछत्र सम्राट् थे, बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ थीं तथा सारी पृथ्वी उनके वश में थी। सब प्रकार की सम्पत्तियाँ उनकी सेवा में उपस्थित थीं, परन्तु वे सब वस्तुएँ उन्हें सुखी न कर सकीं।

एक दिन शाप और वरदान देने में समर्थ अंगिरा ऋषि स्वच्छन्द रूप से विभिन्न लोकों में विचरते हुए राजा चित्रकेतु के महल में पहुँच गये। राजा ने प्रत्युथान और अर्ध्य आदि से उनकी विधिपूर्वक पूजा की। आतिथ्य-सत्कार हो जाने के बाद जब अंगिरा ऋषि सुखपूर्वक आसन पर विराज गये, तब राजा चित्रकेतु भी शान्तभाव से उनके पास ही बैठ गये। महाराज! महर्षि अंगिरा ने देखा कि यह राजा बहुत विनयी है और मेरे पास पृथ्वी पर बैठकर मेरी भक्ति कर रहा है। तब उन्होंने चित्रकेतु को सम्बोधित करके उसे आदर देते हुए यह बात कही।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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