श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 1-17

अष्टम स्कन्ध: अथाष्टमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


समुद्र से अमृत का प्रकट होना और भगवान् का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- इस प्रकार जब भगवान् शंकर ने विष पी लिया, तब देवता और असुरों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे फिर नये उत्साह से समुद्र मथने लगे। तब समुद्र से कामधेनु प्रकट हुई। वह अग्निहोत्र की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी। इसलिये ब्रह्मलोक तक पहुँचाने वाले यज्ञ के लिये उपयोगी पवित्र घी, दूध आदि प्राप्त करने के लिये ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण किया। उसके बाद उच्चैःश्रवा नाम का घोड़ा निकला। वह चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण का था। बलि ने उसे लेने की इच्छा प्रकट की। इन्द्र ने उसे नहीं चाहा; क्योंकि भगवान् ने उन्हें पहले से ही सिखा रखा था।

तदनन्तर ऐरावत नाम का श्रेष्ठ हाथी निकला। उसके बड़े-बड़े चार दाँत थे, जो उज्ज्वल वर्ण कैलास की शोभा को भी मात करते थे। तत्पश्चात् कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि समुद्र से निकली। उस मणि को अपने हृदय पर धारण करने के लिये अजित भगवान् ने लेना चाहा।

परीक्षित! इसके बाद स्वर्गलोक की शोभा बढ़ाने वाला कल्पवृक्ष निकला। वह याचकों की इच्छाएँ उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वी पर तुम सबकी इच्छाएँ पूर्ण करते हो। तत्पश्चात् अप्सराएँ प्रकट हुईं। वे सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित एवं गले में स्वर्णहार पहने हुए थीं। वे अपनी मनोहर चाल और विलासभरी चितवन से देवताओं को सुख पहुँचाने वाली हुईं। इसके बाद शोभा की मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं। वे भगवान् की नित्य शक्ति हैं। उनकी बिजली के समान चमकीली छटा से दिशाएँ जगमगा उठीं। उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमा से सबका चित्त खिंच गया। देवता, असुर, मनुष्य- सभी ने चाहा कि ये हमें मिल जायें। स्वयं इन्द्र अपने हाथों उनके बैठने के लिये बड़ा विचित्र आसन ले आये। श्रेष्ठ नदियों ने मूर्तिमान् होकर उनके अभिषेक के लिये सोने के घड़ों में भर-भरकर पवित्र जल ला दिया। पृथ्वी ने अभिषेक के योग्य सब ओषधियाँ दीं। गौओं ने पंचगव्य और वसन्त ऋतु ने चैत्र-वैशाख होने वाले सब फूल-फल उपस्थित कर दिये। इन सामग्रियों से ऋषियों ने विधिपूर्वक उनका अभिषेक सम्पन्न किया।

गन्धर्वों ने मंगलमय संगीत की तान छेड़ दी। नर्तकियाँ नाच-नाचकर गाने लगीं। बादल सदेह होकर मृदंग, डमरू, ढोल, नगारे, नरसिंगे, शंख, वणु और वीणा बड़े जोर से बजाने लगे। तब भगवती लक्ष्मी देवी हाथ में कमल लेकर सिंहासन पर विराजमान हो गयीं। दिग्गजों ने जल से भरे कलशों से उनको स्नान कराया। उस समय ब्राह्मणगण वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। समुद्र ने पीले रेशमी वस्त्र उनको पहनने के लिये दिये। वरुण ने ऐसी वैजन्ती माला समर्पित की, जिसकी मधुमय सुगन्ध से भौंरे मतवाले हो रहे थे। प्रजापति विश्वकर्मा ने भाँति-भाँति के गहने, सरस्वती ने मोतियों का हार, ब्रह्मा जी के कमल और नागों ने दो कुण्डल समर्पित किये। इसके बाद लक्ष्मी जी ब्राह्मणों के स्वस्त्ययन-पाठ कर चुकने पर अपने हाथों में कमल की माला लेकर उसे सर्वगुणसम्पन्न पुरुष के गले में डालने चलीं। माला के आसपास उसकी सुगन्ध से मतवाले हुए भौंरें गुंजार कर रहे थे। उस समय लक्ष्मी जी के मुख की शोभा अवर्णनीय हो रही थी। सुन्दर कपोलों पर कुण्डल लटक रहे थे। लक्ष्मी जी कुछ लज्जा के साथ मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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