श्रीमद्भागवत महापुराण प्रथम स्कन्ध अध्याय 17 श्लोक 1-16

प्रथम स्कन्ध: सप्तदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


महाराज परीक्षित के द्वारा कलियुग का दमन

सूत जी कहते हैं- शौनक जी! वहाँ पहुँचकर राजा परीक्षित ने देखा कि एक राज वेषधारी शूद्र हाथ में डंडा लिये हुए है और गाय-बैल के जोड़े को इस तरह पीटता जा रहा है, जैसे उनका कोई स्वामी ही न हो। वह कमलतन्तु के समान श्वेत रंग का बैल एक पैर से खड़ा काँप रहा था तथा शूद्र की ताड़ना से पीड़ित और भयभीत होकर मूत्र-त्याग कर रहा था। धर्मोपयोगी दूध, घी आदि हविष्य पदार्थों को देने वाली वह गाय भी बार-बार शूद्र के पैरों की ठोकरें खाकर अत्यन्त दीन हो रही थी। एक तो वह स्वयं ही दुबली-पतली थी, दूसरे उसका बछड़ा भी उसके पास नहीं था। उसे भूख लगी हुई थी और उसकी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे। स्वर्णजटित रथ पर चढ़े हुए राजा परीक्षित ने अपना धनुष चढ़ाकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उसको ललकारा।

अरे! तू कौन है, जो बलवान् होकर भी मेरे राज्य के इन दुर्बल प्राणियों को बलपूर्वक मार रहा है? तूने नट की भाँति वेष तो राजा का-सा बना रखा है, परन्तु कर्म से तू शूद्र जान पड़ता है। हमारे दादा अर्जुन के साथ भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम पधार जाने पर इस प्रकार निर्जन स्थान एन निरपराधों पर प्रहार करने वाला तू अपराधो है, अतः वध के योग्य है।

उन्होंने धर्म से पूछा- कमल-नाल के समान आपका श्वेतवर्ण है। तीन पैर न होने पर भी आप एक ही पैर से चलते-फिरते हैं। यह देखकर मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। बतलाइये, आप क्या बैल के रूप में कोई देवता हैं? अभी यह भूमण्डल कुरुवंशी नरपतियों के बाहुबल से सुरक्षित है। इसमें आपके सिवा और किसी भी प्राणी की आँखों से शोक के आँसू बहते मैंने नहीं देखे। धेनुपुत्र! अब आप शोक न करें। इस शूद्र से निर्भय हो जायें। गोमाता! मैं दुष्टों को दण्ड देने वाला हूँ। अब आप रोयें नहीं। आपका कल्याण हो।

देवि! जिस राजा के राज्य में दुष्टों के उपद्रव से सारी प्रजा त्रस्त रहती है, उस मतवाले राजा की कीर्ति, आयु, ऐश्वर्य और परलोक नष्ट हो जाते हैं। राजाओं का परम धर्म यही है कि वे दुःखियों का दुःख दूर करें। यह महादुष्ट और प्राणियों को पीड़ित करने वाला है। अतः मैं अभी इसे मार डालूँगा। सुरभिनन्दन! आप तो चार पैर वाले जीव हैं। आपके तीन पैर किसने काट डाले? श्रीकृष्ण के अनुयायी राजाओं के राज्य में कभी कोई भी आपकी तरह दुःखी न हो।

वृषभ! आपका कल्याण हो। बताइये, आप-जैसे निरपराध साधुओं का अंग-भंग करके किस दुष्ट ने पाण्डवों की कीर्ति में कलंक लगाया है? जो किसी निरपराध प्राणी को सताता है, उसे चाहे वह कहीं भी रहे, मेरा भय अवश्य होगा। दुष्टों का दमन करने से साधुओं का कल्याण ही होता है। जो उद्दण्ड व्यक्ति निरपराध प्राणियों को दुःख देता है, वह चाहे साक्षात् देवता ही क्यों न हो, मैं उसकी बाजूबंद से विभूषित भुजा को काट डालूँगा। बिना आपत्तिकाल के मर्यादा का उल्लंघन करने वालों को शास्त्रानुसार दण्ड देते हुए अपने धर्म में स्थित लोगों का पालन करना राजाओं का परम धर्म है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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