श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 1-13

षष्ठ स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


पुंसवन-व्रत की विधि

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! आपने अभी-अभी पुंसवन-व्रत का वर्णन किया है और कहा है कि उससे भगवान् विष्णु प्रसन्न हो जाते हैं। सो अब मैं उसकी विधि जानना चाहता हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! यह पुंसवन-व्रत समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। स्त्री को चाहिये कि वह अपने पतिदेव की आज्ञा लेकर मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा से इसका आरम्भ करे। पहले मरुद्गण के जन्म की कथा सुनकर ब्राह्मणों से आज्ञा ले। फिर प्रतिदिन सबेरे दाँतुन आदि से दाँत साफ करके स्नान करे, दो श्वेत वस्त्र धारण करे और आभूषण भी पहन ले। प्रातःकाल कुछ भी खाने से पहले ही भगवान् लक्ष्मी-नारायण की पूजा करे। (इस प्रकार प्रार्थना करे- ) ‘प्रभो! आप पूर्णकाम हैं। अतएव आपको किसी से भी कुछ लेना-देना नहीं है। आप समस्त विभूतियों के स्वामी और सकल-सिद्धि स्वरूप हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ। मेरे आराध्यदेव! आप कृपा, विभूति, तेज, महिमा और वीर्य आदि समस्त गुणों से नित्ययुक्त हैं। इन्हीं भगों-ऐश्वर्यों से नित्ययुक्त रहने के कारण आपको भगवान् कहते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं। माता लक्ष्मी जी! आप भगवान् की अर्द्धांगिनी और महामाया-स्वरूपिणी हैं। भगवान् के सारे गुण आप में निवास करते हैं। महाभाग्यवती जन्माता! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मैं आपको नमस्कार करती हूँ’।

परीक्षित! इस प्रकार स्तुति करके एकाग्रचित्त से ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिर्बलिमुपहराणि।’

‘ओंकार स्वरूप, महानुभाव, समस्त महाविभूतियों के स्वामी भगवान् पुरुषोत्तम को और उनकी महाविभूतियों को मैं नमस्कार करती हूँ और उन्हें पूजोपहार की सामग्री समर्पण करती हूँ’- इस मन्त्र के द्वारा प्रतिदिन स्थिर चित्त से विष्णु भगवान् का आवाहन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि निवेदन करके पूजन करे। जो नैवेद्य बच रहे, उससे ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूतिपतये स्वाहा।’ ‘महान् ऐश्वर्यों के अधिपति भगवान् पुरुषोत्तम को नमस्कर है। मैं उन्हीं के लिये इस हविष्य का हवन कर रही हूँ।’- यह मन्त्र बोलकर अग्नि में बारह आहुतियाँ दे।

परीक्षित! जो सब प्रकार की सम्पत्तियों को प्राप्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि प्रतिदिन भक्तिभाव से भगवान् लक्ष्मीनारायण की पूजा करे; क्योंकि वे ही दोनों समस्त अभिलाषाओं के पूर्ण करने वाले एवं श्रेष्ठ वरदानी हैं। इसके बाद भक्तिभाव से भरकर बड़ी नम्रता से भगवान् को साष्टांग दण्डवत् करे। दस बार पूर्वोक्त मन्त्र का जप करे और फिर इस स्तोत्र का पाठ करे-

‘हे लक्ष्मीनारयण! आप दोनों सर्वव्यापक और सम्पूर्ण चराचर जगत् के अन्तिम कारण हैं- आपका और कोई कारण नहीं है। भगवन्! माता लक्ष्मी जी आपकी मायाशक्ति हैं। ये ही स्वयं अव्यक्त प्रकृति भी हैं। इनका पार पाना अत्यन्त कठिन है। प्रभो! आप ही इन महामाया के अधीश्वर हैं और आप ही स्वयं परमपुरुष हैं। आप समस्त यज्ञ हैं और ये हैं यज्ञ-क्रिया। आप फल के भोक्ता हैं और ये हैं उसको उत्पन्न करने वाली क्रिया। माता लक्ष्मी जी तीनों गुणों की अभिव्यक्ति हैं और आप उन्हें व्यक्त करने वाले और उनके भोक्ता हैं। आप समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और लक्ष्मी जी शीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण हैं। माता लक्ष्मी जी नाम एवं रूप हैं और आप नाम-रूप दोनों के प्रकाशक तथा आधार हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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