श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 1-16

चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


उत्तम का मारा जाना, ध्रुव का यक्षों के साथ युद्ध

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि के साथ विवाह किया, उससे उनके कल्प और वत्सर नाम के दो पुत्र हुए।

महाबली ध्रुव की दूसरी स्त्री वायुपुत्री इला थी। उससे उनके उत्कल नाम के पुत्र और एक कन्यारत्न का जन्म हुआ। उत्तम का अभी विवाह नहीं हुआ था कि एक दिन शिकार खेलते समय उसे हिमालय पर्वत पर एक बलवान् यक्ष ने मार डाला। उसके साथ उसकी माता भी परलोक सिधार गयी। ध्रुव ने जब भाई के मारे जाने का समाचार सुना तो वे क्रोध, शोक और उद्वेग से भरकर एक विजयप्रद रथ पर सवार हो यक्षों के देश में जा पहुँचे। उन्होंने उत्तर दिशा में जाकर हिमालय की घाटी में यक्षों से भरी हुई अलकापुरी देखी, उसमें अनेकों भूत-प्रेत-पिशाचादि रुद्रानुचर रहते थे।

विदुर जी! वहाँ पहुँचकर महाबाहु ध्रुव ने अपना शंख बजाया तथा सम्पूर्ण आकाश और दिशाओं को गुँजा दिया। उस शंखध्वनि से यक्ष-पत्नियाँ बहुत ही डर गयीं, उनकी आँखें भय से कातर हो उठीं।

वीरवर विदुर जी! महाबलवान् यक्षवीरों को वह शंखनाद सहन न हुआ। इसलिये वे तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र लेकर नगर के बाहर निकल आये और ध्रुव पर टूट पड़े। महारथी ध्रुव प्रचण्ड धनुर्धर थे। उन्होंने एक ही साथ उनमें से प्रत्येक को तीन-तीन बाण मारे। उन सभी ने जब अपने-अपने मस्तकों में तीन-तीन बाण लगे देखे, तब उन्हें यह विश्वास हो गया कि हमारी हार अवश्य होगी। वे ध्रुव जी के इस अद्भुत पराक्रम की प्रशंसा करने लगे। फिर जैसे सर्प किसी के पैरों का आघात नहीं सहते, उसी प्रकार ध्रुव के इस पराक्रम को न सहकर उन्होंने भी उनके बाणों के जवाब में एक ही साथ उनसे दूने- छः-छः बाण छोड़े। यक्षों की संख्या तेरह अच्युत (1,30,000) थी। उन्होंने ध्रुव जी का बदला लेने के लिये अत्यन्त कुपित होकर रथ और सारथी के सहित उन पर परिघ, खड्ग, प्रास, त्रिशूल, फरसा, शक्ति, ऋष्टि, भुशुण्डी तथा चित्र-विचित्र पंखदार बाणों की वर्षा की।

इस भीषण शस्त्रवर्षा से ध्रुव जी बिलकुल ढक गये। तब लोगों को उनका दीखना वैसे ही बंद हो गया, जैसे भारी वर्षा से पर्वत का। उस समय जो सिद्धगण आकाश में स्थित होकर यह दृश्य देख रहे थे, वे सब हाय-हाय करके कहने लगे- ‘आज यक्ष सेनारूप समुद्र में डूबकर यह मानव-सूर्य अस्त हो गया’। यक्ष लोग अपनी विजय की घोषणा करते हुए युद्ध क्षेत्र में सिंह की तरह गरजने लगे। इसी बीच में ध्रुव जी का रथ एकाएक वैसे ही प्रकट हो गया, जैसे कुहरे में से सूर्य भगवान् निकल आते हैं। ध्रुव जी ने अपने दिव्य धनुष की टंकार करके शत्रुओं के दिल दहला दिये और फिर प्रचण्ड बाणों की वर्षा करके उनके अस्त्र-शस्त्रों को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया, जैसे आँधी बादलों को तितर-बितर कर देती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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