चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 50-67 का हिन्दी अनुवाद
विदुर जी! इस प्रकार जब सभी लोग ध्रुव के प्रति अपना लाड़-प्यार प्रकट कर रहे थे, उसी समय उन्हें भाई उत्तम के सहित हथिनी पर चढ़ाकर महाराज उत्तानपाद ने बड़े हर्ष के साथ राजधानी में प्रवेश किया। उस समय सभी लोग उनके भाग्य की बड़ाई कर रहे थे। नगर में जहाँ-तहाँ मगर के आकार के सुन्दर दरवाजे बनाये गये थे तथा फल-फूलों के गुच्छों के सहित केले के खम्भे और सुपारी के पौधे सजाये गये थे। द्वार-द्वार पर दीपक के सहित जल के कलश रखे हुए थे-जो आम के पत्तों, वस्त्रों, पुष्पमालाओं तथा मोती की लकड़ियों से सुसज्जित थे। जिन अनेकों परकोटों, फाटकों और महलों से नगरी सुशोभित थी, उन सबको सुवर्ण की सामग्रियों से सजाया गया था तथा उनके कँगूरे विमानों के शिखरों के समान चमक रहे थे। नगर के चौक, गलियों, अटारियों और सडकों को झाड़-बुहारकर उन पर चन्दन का छिड़काव किया गया था और जहाँ-तहाँ खील, चावल, पुष्प, फल, जौ एवं अन्य मांगलिक उपहार-सामग्रियाँ सजी रखी थीं। ध्रुव जी राजमार्ग से जा रहे थे। उस समय जहाँ-तहाँ नगर की शीलवती सुन्दरियाँ उन्हें देखने को एकत्र हो रही थीं। उन्होंने वात्सल्यभाव से अनेकों शुभाशीर्वाद देते हुए उन पर सफेद सरसों, अक्षत, दही, जल, दूर्वा, पुष्प और फलों की वर्षा की। इस प्रकार उनके मनोहर गीत सुनते हुए ध्रुव जी ने अपने पिता के महल में प्रवेश किया। वह श्रेष्ठ भवन महामूल्य मणियों की लड़ियों से सुसज्जित था। उसमें अपने पिताजी के लाड़-प्यार सुख भोगते हुए वे उसी प्रकार आनन्दपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्ग में देवता लोग रहते हैं। वहाँ दूध के फेन के समान सफेद और कोमल शय्याएँ, हाथी-दाँत के पलंग, सुनहरी कामदार परदे, बहुमूल्य आसन और बहुत-सा सोने का सामान था। उसकी स्फटिक और महामरकतमणि (पन्ने) की दीवारों में रत्नों की बनी हुई स्त्रीमूर्तियों पर रखे हुए मणिमय दीपक जगमगा रहे थे। उस महल के चारों ओर अनेक जाति के दिव्य वृक्षों से सुशोभित उद्यान थे, जिसमें नर और मादा पक्षियों का कलरव तथा मतवाले भौंरों का गुंजार होता रहता था। उन बगीचों में वैदूर्यमणि (पुखराज) की सीढ़ियों से सुशोभित बावलियाँ थीं-जिनमें लाल, नीले और सफेद रंग के कमल खिले रहते थे तथा हंस, कारण्डव, चकवा एवं सारस आदि पक्षी क्रीड़ा करते रहते थे। राजर्षि उत्तानपाद ने अपने पुत्र के अति अद्भुत प्रभाव की बात देवर्षि नारद से पहले ही सुन रखी थी; अब उसे प्रत्यक्ष वैसा ही देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर यह देखकर कि अब ध्रुव तरुण अवस्था को प्राप्त हो गये हैं, अमात्यवर्ग उन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं तथा प्रजा का भी उन पर अनुराग है, उन्होंने उन्हें निखिल भूमण्डल के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और आप वृद्धावस्था आयी जानकर आत्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए संसार से विरक्त होकर वन को चल दिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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