श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 1-16

एकादश स्कन्ध: षोडश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षोडश अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


भगवान की विभूतियों का वर्णन

उद्धव जी ने कह- 'भगवन्! आप स्वयं परब्रह्म हैं, न आपका आदि है और न अन्त। आप आवरण-रहित, अद्वितीय तत्त्व हैं। समस्त प्राणियों और पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा और प्रलय के कारण भी आप ही हैं। आप ऊँचे-नीचे सभी प्राणियों में स्थित हैं; परन्तु जिन लोगों ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वे आपको नहीं जान सकते। आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्मवेत्ता पुरुष ही करते हैं। बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि आपके जिन रूपों और विभूतियों की परम भक्ति के साथ उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं, वह आप मुझसे कहिये।

समस्त प्राणियों के जीवनदाता प्रभो! आप समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा हैं। आप उनमें अपने को गुप्त रखकर लीला करते रहते हैं। आप तो सबको देखते हैं, परन्तु जगत् के प्राणी आपकी माया से ऐसे मोहित हो रहे हैं कि वे आपको नहीं देख पाते। अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न प्रभो! पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल तथा दिशा-विदिशाओं में आपके प्रभाव से युक्त जो-जो भी विभूतियाँ हैं, आप कृपा करके मुझसे उनका वर्णन कीजिये। प्रभो! मैं आपके उन चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो समस्त तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले हैं।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय उद्धव! तुम प्रश्न का मर्म समझने वालों में शिरोमणि हो। जिस समय कुरुक्षेत्र में कौरव-पाण्डवों का युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय शत्रुओं से युद्ध के लिये तत्पर अर्जुन ने मुझसे यही प्रश्न किया था। अर्जुन के मन में ऐसी धारणा हुई कि कुटुम्बियों को मारना, और सो भी राज्य के लिये, बहुत ही निन्दनीय अधर्म है। साधारण पुरुषों के समान वह यह सोच रहा था कि ‘मैं मारने वाला हूँ और ये सब मरने वाले हैं। यह सोचकर वह युद्ध से उपरत हो गया। तब मैंने रणभूमि में बहुत-सी युक्तियाँ देकर वीरशिरोमणि अर्जुन को समझाया था। उस समय अर्जुन ने भी मुझसे यही प्रश्न किया था, जो तुम कर रहे हो।

उद्धव जी! मैं समस्त प्राणियों का आत्मा, हितैषी, सुहृद् और ईश्वर-नियामक हूँ। मैं ही इन समस्त प्राणियों और पदार्थों के रूप में हूँ और इनकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का कारण भी हूँ। गतिशील पदार्थों में मैं गति हूँ। अपने अधीन करने वालों में मैं काल हूँ। गुणों में मैं उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था हूँ और जितने भी गुणवान् पदार्थ हैं, उसमें उनका स्वाभाविक गुण हूँ। गुणयुक्त वस्तुओं में मैं क्रिया-शक्ति-प्रधान प्रथम कार्य सूत्रात्मा हूँ और महानों में ज्ञान-शक्तिप्रधान प्रथम कार्य महत्तत्त्व हूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में मैं जीव हूँ और कठिनाई से वश में होने वालों में मन हूँ। मैं वेदों का अभिव्यक्ति स्थान हिरण्यगर्भ हूँ और मन्त्रों में तीन मात्राओं (अ+उ+म) वाला ओंकार हूँ। मैं अक्षरों में अकार, छन्दों में त्रिपदा गायत्री हूँ। समस्त देवताओं में इन्द्र, आठ वसुओं में अग्नि, द्वादश आदित्यों में विष्णु और एकादश रुद्रों में नील लोहित नाम रुद्र हूँ। मैं ब्रह्मर्षियों में भृगु, राजर्षियों में मनु, देवर्षियों में नारद और गौओं में कामधेनु हूँ। मैं सिद्धेश्वरों में कपिल, पक्षियों में गरुड़, प्रजापतियों में दक्ष प्रजापति और पितरों में अर्यमा हूँ। प्रिय उद्धव! मैं दैत्यों में दैत्यराज प्रह्लाद, नक्षत्रों में चन्द्रमा, ओषधियों में सोमरस एवं यक्ष-राक्षसों में कुबेर हूँ-ऐसा समझो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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