एकादश स्कन्ध: पंचदश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पंचदश अध्याय श्लोक 24-36 का हिन्दी अनुवाद
जिस पुरुष ने मेरे सत्यसंकल्पस्वरूप में अपना चित्त स्थिर कर दिया है, उसी के ध्यान में संलग्न है, वह अपने मन से जिस समय जैसा संकल्प करता है, उसी समय उसका वह संकल्प सिद्ध हो जाता है। मैं ‘ईशित्व’ और ‘वशित्व’- इन दोनों सिद्धियों का स्वामी हूँ; इसलिये कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता। जो मेरे उस रूप का चिन्तन करके उसी भाव से युक्त हो जाता है, मेरे समान उसकी आज्ञा को भी कोई टाल नहीं सकता। जिस योगी का चित्त मेरी धारणा करते-करते मेरी भक्ति के प्रभाव से शुद्ध हो गया है, उसकी बुद्धि जन्म-मृत्यु आदि अदृष्ट विषयों को भी जान लेती है। और तो क्या-भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातें उसे मालूम हो जाती हैं। जैसे जल के द्वारा जल में रहने वाले प्राणियों का नाश नहीं होता, वैसे ही जिस योगी ने अपना चित्त मुझमें लगाकर शिथिल कर दिया है, उसके योगमय शरीर को अग्नि, जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते। जो पुरुष श्रीवत्स आदि चिह्न और शंख-गदा-चक्र-पद्म आदि आयुधों से विभूषित तथा ध्वजा-छत्र-चँवर आदि से सम्पन्न मेरे अवतारों का ध्यान करता है, वह अजेय हो जाता है। इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योग धारणा के द्वारा मेरा चिन्तन करता है, उसे वे सभी सिद्धियाँ पूर्णतः प्राप्त हो जाती हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है। प्यारे उद्धव! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रीयों पर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरूप की धारणा कर रहा है, उसके लिये ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं, जो दुर्लभ हो। उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त ही हैं। परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोगादि उत्तम योगों का अभ्यास कर रहे हैं, जो मुझसे एक हो रहे हैं, उनके लिये इन सिद्धियों का प्राप्त होना एक विघ्न ही है; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समय का दुरुपयोग होता है। जगत् में जन्म, ओषधि, तपस्या और मन्त्रादि के द्वारा जितनी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे सभी योग के द्वारा मिल जाती हैं; परन्तु योग की अन्तिम सीमा-मेरे सारूप्य, सालोक्य आदि की प्राप्ति बिना मुझमें चित्त लगाये किसी भी साधन से नहीं प्राप्त हो सकती। ब्रह्मवादियों ने बहुत-से साधन बतलाये हैं-योग, सांख्य और धर्म आदि। उनका एवं समस्त सिद्धियों का एकमात्र मैं ही हेतु, स्वामी और प्रभु हूँ। जैसे स्थूल पंचभूतों में बाहर, भीतर-सर्वत्र सूक्ष्म पंच-महाभूत ही हैं, सूक्ष्म भूतों के अतिरिक्त स्थूल भूतों की कोई सत्ता ही नहीं है, वैसे ही मैं समस्त प्राणियों के भीतर दृष्टारूप से और बाहर दृश्यरूप से स्थित हूँ। मुझमें बाहर-भीतर का भेद भी नहीं है; क्योंकि मैं निरावरण, एक-अद्वितीय आत्मा हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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