चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- इस प्रकार महामनस्वी प्रजापति पृथु ने स्वयमेव अन्नादि तथा पुर-ग्रामदि सर्ग की व्यवस्था करके स्थावर-जगम सभी की आजीविका का सुभीता कर दिया तथा साधुजनोचित धर्मों का खूब पालन किया। ‘मेरी अवस्था कुछ ढल गयी है और जिसके लिये मैंने इस लोक में जन्म लिया था, उस प्रजा रक्षणरूप ईश्वराज्ञा का पालन भी हो चुका है; अतः अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थ- मोक्ष के लिये प्रयत्न करना चाहिये’ यह सोचकर उन्होंने अपने विरह में रोती हुई अपनी पुत्रीरूपा पृथ्वी का भार पुत्रों को सौंप दिया और सारी प्रजा को बिलखती छोड़कर वे अपनी पत्नीसहित अकेले ही तपोवन को चल दिये। वहाँ भी वे वानप्रस्थ आश्रम के नियमानुसार उसी प्रकार कठोर तपस्या में लग गये, जैसे पहले गृहस्थाश्रम में अखण्ड व्रतपूर्वक पृथ्वी को विजय करने में लगे थे। कुछ दिन तो उन्होंने कन्द-मूल-फल खाकर बिताये, कुछ काल सूखे पत्ते खाकर रहे, फिर कुछ पखवाड़ों तक जल पर ही रहे और इसके बाद केवल वायु से ही निर्वाह करने लगे। वीरवर पृथु मुनिवृत्ति से रहते थे। गर्मियों में उन्होंने पंचाग्नियों का सेवन किया, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर अपने शरीर पर जल की धाराएँ सहीं और जाड़े में गले तक जल में खड़े रहे। वे प्रतिदिन मिट्टी की वेदी पर ही शयन करते थे। उन्होंने शीतोष्णदि सब प्रकार के द्वन्दों को सहा तथा वाणी और मन का संयम करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्राणों को अपने अधीन किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिये उन्होंने उत्तम तप किया। इस क्रम से उनकी तपस्या बहुत पुष्ट हो गयी और उसके प्रभाव से कर्ममल नष्ट हो जाने के कारण उनका चित्त सर्वथा शुद्ध हो गया। प्राणायाम के द्वारा मन और इन्द्रियों के निरुद्ध हो जाने से उनका वासनाजनित बन्धन गया। तब, भगवान् सनत्कुमार ने उन्हें जिस परमोत्कृष्ट अध्यात्मयोग की शिक्षा दी थी, उसी के अनुसार राजा पृथु पुरुषोत्तम श्रीहरि की आराधना करने लगे। इस तरह भगवत्परायण होकर श्रद्धापूर्वक सदाचार का पालन करते हुए निरन्तर साधन करने से परब्रह्म परमात्मा में उनकी अनन्यभक्ति हो गयी। इस प्रकार भगवदुपासना से अन्तःकरण शुद्ध-सात्त्विक हो जाने पर निरन्तर भगवच्चितन के प्रभाव के प्रभाव से प्राप्त हुई इस अनन्य भक्ति से उन्हें वैराग्यसहित प्राप्त हुई और फिर उस तीव्र ज्ञान के द्वारा उन्होंने जीव के उपाधिभूत अहंकार को नष्ट कर दिया, जो सब प्रकार के संशय-विपर्यय का आश्रय है। इसके पश्चात् देहात्मबुद्धि की निवृत्ति और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण की अनुभूति होने पर अन्य सब प्रकार की सिद्धि आदि से भी उदासीन हो जाने के कारण उन्होंने उस तत्त्वज्ञान के लिये भी प्रयत्न करना छोड़ दिया, जिसकी सहायता से पहले अपने जीवकोश का नाश किया था, क्योंकि जब तक साधन को योगमार्ग के द्वारा श्रीकृष्ण-कथामृत में अनुराग नहीं होता, तब तक केवल योगसाधना से उसका मोहजनित प्रमाद दूर नहीं होता- भ्रम नहीं मिटता। फिर जब अन्तकाल उपस्थित हुआ तो वीरवर पृथु ने अपने चित्त को दृढ़तापूर्वक परमात्मा में स्थिर कर ब्रह्मभाव में स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया। उन्होंने एड़ी से गुदा के द्वार को रोककर प्राणवायु को धीरे-धीरे मूलाधार से ऊपर की ओर उठाते हुए उसे क्रमशः नाभि, हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तक में स्थित किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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