श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 1-12

अष्टम स्कन्ध: सप्तमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


समुद्र मन्थन का आरम्भ और भगवान् शंकर का विषपान

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! देवता और असुरों ने नागराज वासुकि को यह वचन देकर कि समुद्र मन्थन से प्राप्त होने वाले अमृत में तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगों ने वासुकि नाग को नेती के समान मन्दराचल में लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्द से अमृत के लिये समुद्र मन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान् वासुकि के मुख की ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे। परन्तु भगवान् की यह चेष्टा दैत्य सेनापतियों को पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि ‘पूँछ तो साँप का अशुभ अंग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे। हमने वेद-शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंश में हमारा जन्म हुआ है और वीरता के बड़े-बड़े काम हमने किये हैं। हम देवताओं से किस बात में कम हैं?’ यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृत्ति देखकर भगवान् ने मुसकराकर वासुकि का मुँह छोड़ दिया और देवताओं के साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली। इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृत प्राप्ति के लिये पूरी तैयारी से समुद्र मन्थन करने लगे।

परीक्षित! जब समुद्र मन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुरों के पकड़े रहने पर भी अपने भार की अधिकता और नीचे कोई आधार न होने के कारण मन्दराचल समुद्र में डूबने लगा। इस प्रकार अत्यन्त बलवान् दैव के द्वारा अपना सब किया-कराया मिट्टी में मिलते देख उनका मन टूट गया। सबके मुँह पर उदासी छा गयी। उस समय भगवान् ने देखा कि यह तो विघ्नराज की करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारण का उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छप का रूप धारण किया और समुद्र के जल में प्रवेश करके मन्दराचल को ऊपर उठा दिया। भगवान् की शक्ति अनन्त है। वे सत्यसंकल्प हैं। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी। देवता और असुरों ने देखा कि मन्दराचल तो ऊपर उठ आया है, तब वे फिर से समुद्र मन्थन के लिये उठ खड़े हुए। उस समय भगवान् ने जम्बू द्वीप के समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठ पर मन्दराचल को धारण कर रखा था।

परीक्षित! जब बड़े-बड़े देवता और असुरों ने अपने बाहुबल से मन्दराचल को प्रेरित किया, तब वह भगवान् की पीठ पर घूमने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदि कच्छप भगवान् को उस पर्वत का चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो। साथ ही समुद्र मन्थन सम्पन्न करने के लिये भगवान् ने असुरों में उनकी शक्ति और बल को बढ़ाते हुए असुर रूप से प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताओं को उत्साहित करते हुए उनमें देव रूप से प्रवेश किया और वासुकि नाग में निद्रा के रूप से। इधर पर्वत के ऊपर दूसरे पर्वत के समान बनकर सहस्रबाहु भगवान् अपने हाथों से उसे दबाकर स्थित हो गये। उस समय आकाश में ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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