श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 13-22

अष्टम स्कन्ध: सप्तमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद


इस प्रकार भगवान् ने पर्वत के ऊपर उसको दबा रखने वाले के रूप में, नीचे उसके आधार कच्छप के रूप में, देवता और असुरों के शरीर में उनकी शक्ति के रूप में, परत में दृढ़ता के रूप में और नेती बने हुए वासुकि नाग में निद्रा के रूप में-जिससे उसे कष्ट न हो-प्रवेश करके सब ओर से सबको शक्तिसम्पन्न कर दिया। अब वे अपने बल के मद से उन्मत्त होकर मन्दराचल के द्वारा बड़े वेग से समुद्र मन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें रहने वाले मगर, मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये।

नागराज वासुकि के हजारों कठोर नेत्र, मुख और श्वासों से विष की आग निकलने लगी। उनके धूएँ से पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर निस्तेज हो गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दावानल से झुलसे हुए साखू के पेड़ खड़े हों। देवता भी उससे न बच सके। वासुकि के श्वास की लपटों से उनका भी तेज फीका पड़ गया। वस्त्र, माला, कवच एवं मुख धूमिल हो गये। उनकी यह दशा देखकर भगवान् की प्रेरणा से बादल देवताओं के ऊपर वर्षा करने लगे एवं वायु समुद्र की तरंगों का स्पर्श करके शीतलता और सुगन्धिका संचार करने लगी। इस प्रकार देवता और असुरों के समुद्र मन्थन करने पर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजित भगवान् समुद्र मन्थन करने लगे।

मेघ के समान साँवले शरीर पर सुनहला पीताम्बर, कानों में बिजली के समान चमकते हुए कुण्डल, सिर पर लहराते हुए घुँघराले बाल, नेत्रों में लाल-लाल रेखाएँ और गले में वनमाला सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण जगत् को अभयदान करने वाले अपने विश्वविजयी भुजदण्डों से वासुकि नाग को पकड़कर तथा कूर्म रूप से पर्वत को धारण कर जब भगवान् मन्दराचल की मथानी से समुद्र मन्थन करने लगे, उस समय वे दूसरे पर्वतराज के समान बड़े ही सुन्दर लग रहे थे। जब अजित भगवान् ने इस प्रकार समुद्र मन्थन किया, तब समुद्र में बड़ी खलबली मच गयी। मछली, मगर, साँप और कछुए भयभीत होकर ऊपर आ गये और इधर-उधर भागने लगे। तिमी-तिमिंगिल आदि मच्छ, समुद्री हाथी और ग्राह व्याकुल हो गये। उसी समय पहले-पहल हलाहल नाम का अत्यन्त उग्र विष निकला। वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशा में, ऊपर-नीचे सर्वत्र उड़ने और फैलने लगा। इस असह्य विष से बचने का कोई उपाय भी तो न था। भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसी के द्वारा त्राण न मिलने पर भगवान् सदाशिव की शरण में गये। भगवान् शंकर सती जी के साथ कैलास पर्वत पर विराजमान थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनकी सेवा कर रहे थे। वे वहाँ तीनों लोकों के अभ्युदय और मोक्ष के लिये तपस्या कर रहे थे। प्रजापतियों ने उनका दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया।

प्रजापतियों ने भगवान् शंकर की स्तुति की-देवताओं के आराध्यदेव महादेव! आप समस्त प्राणियों के आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हम लोग आपकी शरण में आये हैं। त्रिलोकी को भस्म करने वाले इस उग्र विष से आप हमारी रक्षा कीजिये। सारे जगत् को बाँधने और मुक्त करने में एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि आप शरणागत की पीड़ा नष्ट करने वाले एवं जगद्गुरु हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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