श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 1-15

चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


महाराज पृथु की यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान् का प्रादुर्भाव

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! महाराज पृथु के निन्यानबे यज्ञों से यज्ञभोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् विष्णु को भी बड़ा सन्तोष हुआ। उन्होंने इन्द्र के सहित वहाँ उपस्थित होकर उनसे कहा।

श्रीभगवान् ने कहा- राजन! (इन्द्र ने) तुम्हारे सौ अश्वमेध पूरे करने के संकल्प में विघ्न डाला है। अब ये तुमसे क्षमा चाहते हैं, तुम इन्हें क्षमा कर दो।

नरदेव! जो श्रेष्ठ मानव साधु और सद्बुद्धि-सम्पन्न होते हैं, वे दूसरे जीवों से द्रोह नहीं करते; क्योंकि यह शरीर ही आत्मा नहीं है। यदि तुम-जैसे लोग भी मेरी माया से मोहित हो जायें, तो समझना चाहिये कि बहुत दिनों तक की हुई ज्ञानीजनों की सेवा से केवल श्रम ही हाथ लगा। ज्ञानवान् पुरुष इस शरीर को अविद्या, वासना और कर्मों का ही पुतला समझकर इसमें आसक्त नहीं होता। इस प्रकार जो इस शरीर में ही आसक्त नहीं है, यह विवेकी पुरुष इससे उत्पन्न हुए घर, पुत्र और धन आदि में भी किस प्रकार ममता रख सकता है। यह आत्मा एक, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निर्गुण, गुणों का आश्रयस्थान, सर्वव्यापक, आवरणशून्य, सबका साक्षी एवं अन्य आत्मा से रहित है; अतएव शरीर से भिन्न है। जो पुरुष इस देहस्थित आत्मा को इस प्रकार शरीर से भिन्न जानता है, वह प्रकृति से सम्बन्ध रखते हुए भी उसके गुणों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसकी स्थिति मुझ परमात्मा में रहती है।

राजन्! जो पुरुष किसी प्रकार की कामना न रखकर अपने वर्णाश्रम के धर्मों द्वारा नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक मेरी आराधना करता है, उसका चित्त धीरे-धीरे शुद्ध हो जाता है। चित्त शुद्ध होने पर उसका विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता तथा उसे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। फिर तो वह मेरी समतारूप स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यही परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य है। जो पुरुष यह जानता है कि शरीर, ज्ञान, क्रिया और मन का साक्षी होने पर भी कूटस्थ आत्मा उनसे निर्लिप्त ही रहता है, वह कल्याणमय मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।

राजन्! गुणप्रवाहरूप आवाहन तो भूत, इन्द्रिय, इन्द्रियाभिमानी देवता और चिदाभास- इन सबकी समष्टिरूप परिच्छिन्न लिंग शरीर का ही हुआ करता है; इसका सर्वसाक्षी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है। मुझमें दृढ़ अनुराग रखने वाले बुद्धिमान् पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति प्राप्त होने पर कभी हर्ष-शोकादि विकारों के वशीभूत नहीं होते। इसलिये वीरवर! तुम उत्तम, मध्यम और अधम पुरुषों में समान भाव रखकर सुख-दुःख को भी एक-सा समझो तथा मन और इन्द्रियों को जीतकर मेरे ही द्वारा जुटाये हुए मन्त्री आदि समस्त राजकीय पुरुषों की सहायता से सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करो। राजा का कल्याण प्रजा पालन में ही है। इससे उसे परलोक में प्रजा के पुण्य का छठा भाग मिलता है। इसके विपरीत जो राजा प्रजा की रक्षा तो नहीं करता; किंतु उससे कर वसूल करता जाता है, उसका सारा पुण्य तो प्रजा छीन लेती है और बदले में उसे प्रजा के पाप का भागी होना पड़ता है। ऐसा विचार कर यदि तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों की सम्मति और पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुए धर्म को ही मुख्यतः अपना लो और कहीं भी आसक्त न होकर इस पृथ्वी का न्यायपूर्वक पालन करते रहो तो सब लोग तुमसे प्रेम करेंगे और कुछ ही दिनों में तुम्हें घर बैठे ही सनकादि सिद्धों के दर्शन होंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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