तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- तत्त्वजिज्ञासु विदुर जी की यह प्रेरणा प्राप्त कर अहंकारहीन श्रीमैत्रेय जी ने भगवान् का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा। श्रीमैत्रेय जी ने कहा- जो आत्मा सबका स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरूप है, वही दीनता और बन्धन को प्राप्त हो-यह बात युक्तिविरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुतः यही तो भगवान् की माया है। जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी अज्ञान के कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीव को बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं। यदि यह कहा जाये कि फिर ईश्वर में इनकी प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जल में होने वाली कम्प आदि क्रिया जल में दीखने वाले चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब में न होने पर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमा में नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीव में ही देह के मिथ्या धर्मों की प्रतीति होती है परमात्मा में नहीं। निष्कामभाव से धर्मों का आचरण करने पर भगवत्कृपा से प्राप्त हुए भक्तियोग के द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है। जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयों से हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरि में निश्चल भाव से स्थित हो जाती हैं, उस समय गाढ़ निद्रा में सोये हुए मनुष्य के समान जीव के राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण अशेष दुःखराशि को शान्त कर देता है; फिर यदि हमारे हृदय में उनके चरणकमल की रज के सेवन का प्रेम जग पड़े, तब तो कहना ही क्या है? विदुर जी ने कहा- भगवन्! आपके युक्तियुक्त वचनों की तलवार से मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न हो गये हैं। अब मेरा चित्त भगवान् की स्वतन्त्रता और जीव की परतन्त्रता-दोनों ही विषयों में खूब प्रवेश कर रहा है। विद्वान्! आपने यह बात बहुत ठीक कही कि जीव को जो क्लेशादि की प्रतीति हो रही है, उसका आधार केवल भगवान् की माया ही है। वह क्लेश मिथ्या एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्व का मूल कारण ही माया के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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