श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 1-11

एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


तत्त्वों की संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक

उद्धव जी ने कहा- 'प्रभो! विश्वेश्वर! ऋषियों ने तत्त्वों की संख्या कितनी बतलायी है? आपने तो अभी (उन्नीसवें अध्याय में) नौ, ग्यारह, पाँच और तीन अर्थात् कुल अट्ठाईस तत्त्व गिनाये हैं। यह तो हम सुन चुके हैं। किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं तो कुछ पचीस; कोई सात, नौ अथवा छः स्वीकार करते हैं, कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह। इसी प्रकार किन्हीं-किन्हीं ऋषि-मुनियों के मत में उनकी संख्या सत्रह है, कोई सोलह और कोई तेरह बतलाते हैं। सनातन श्रीकृष्ण! ऋषि-मुनि इतनी भिन्न संख्याएँ किस अभिप्राय से बतलाते हैं? आप कृपा करके हमें बतलाइये।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- उद्धव जी! वेदज्ञ ब्राह्मण इस विषय में जो कुछ कहते हैं, वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्त्व सब में अन्तर्भूत हैं। मेरी माया को स्वीकार करके क्या कहना असम्भव है? ‘जैसा तुम कहते हो, वह ठीक नहीं है, जो मैं कहता हूँ, वही यथार्थ है’-इस प्रकार जगत् के कारण के सम्बन्ध में विवाद इसलिये होता है कि मेरी शक्तियों-सत्त्व, रज आदि गुणों और उनकी वृत्तियों का रहस्य लोग समझ नहीं पाते; इसलिये वे अपनी-अपनी मनोवृत्ति पर ही आग्रह कर बैठते हैं। सत्त्व आदि गुणों के क्षोभ से ही यह विविध कल्पनारूप प्रपंच-जो वस्तु नहीं केवल नाम-उठ खड़ा हुआ है। यही वाद-विवाद करने वालों के विवाद का विषय है। जब इन्द्रियाँ अपने वश में हो जाती हैं तथा चित्त शान्त हो जाता है, तब यह प्रपंच भी निवृत्त हो जाता है और इसकी निवृत्ति के साथ ही सारे वाद-विवाद भी मिट जाते हैं।

पुरुष-शिरोमणे! तत्त्वों का एक-दूसरे में अनुप्रवेश है, इसलिये वक्ता तत्त्वों की जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारण को कार्य में अथवा कार्य को कारण में मिलाकर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है। ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्व में बहुत-से दूसरे तत्त्वों का अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका किसमें अन्तर्भाव हो। कभी घट-पट आदि कार्य वस्तुओं का उनके कारण मिट्टी-सूत आदि में, तो कभी मिट्टी-सूत आदि का घट-पट आदि कार्यों में अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिये वादी-प्रतिवादियों में से जिसकी वाणी ने जिस कार्य को जिस कारण में अथवा जिस कारण को जिस कार्य में अन्तर्भूत करके तत्त्वों की जितनी संख्या स्वीकार की है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं; क्योंकि उनका वह उपपादन युक्तिसंगत ही है।

उद्धव जी! जिन लोगों ने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि काल से अविद्या से ग्रस्त हो रहा है। वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान कराने के लिये किसी अन्य सर्वज्ञ की आवश्यकता है। (इसलिये प्रकृति के कार्यकारणरूप चौबीस तत्त्व, पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वर-इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिये)। पचीस तत्त्व मानने वाले कहते हैं कि इस शरीर में जीव और ईश्वर का अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं है, इसलिये उसे भेद की कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञान की बात, सो तो सत्त्वात्मिका प्रकृति का गुण है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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