श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 12-22

एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 12-22 का हिन्दी अनुवाद


तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है; इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्मा के नहीं, प्रकृति के ही हैं। इन्हीं के द्वारा जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं। इसलिये ज्ञान आत्मा का गुण नहीं, प्रकृति का ही गुण सिद्ध होता है। इस प्रसंग में सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है। और गुणों में क्षोभ उत्पन्न करने वाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव है। (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्त्वों की-दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है)।

उद्धव जी! (यदि तीनों गुणों को प्रकृति से अलग मान लिया जाये, जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलय देखते हुआ मानना चाहिये, तो तत्त्वों की संख्या स्वयं ही अट्ठाईस हो जाती है। उन तीनों के अतिरिक्त पचीस ये हैं-) पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चुका हूँ। श्रोत, त्वचा, चक्षु, नासिका और रसना-ये पाँच ज्ञानेद्रियाँ; वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ; तथा मन, जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेद्रिय दोनों ही हैं। इस प्रकार कुल ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये ज्ञानेद्रियों के पाँच विषय। इस प्रकार तीन, नौ, ग्यारह और पाँच-सब मिलाकर अट्ठाईस तत्त्व होते हैं। कर्मेन्द्रियों के द्वारा होने वाले पाँच कर्म-चलना, बोलना, मल त्यागना, पेशाब करना और काम करना-इनके द्वारा तत्त्वों की संख्या नहीं बढ़ती। इन्हें कर्मेन्द्रियस्वरूप ही मानना चाहिये। सृष्टि के आरम्भ में कार्य (ग्यारह इन्द्रिय और पंचभूत) और कारण (महत्तत्त्व आदि) के रूप में प्रकृति ही रहती है। वही सत्त्वगुण, रजोगुण तमोगुण की सहायता जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और संहार सम्बन्धी अवस्थाएँ धारण करती है। अव्यक्त पुरुष तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओं का केवल साक्षीमात्र बना रहता है। महत्तत्त्व आदि कारण धातुएँ विकार को प्राप्त होते हुए पुरुष के ईक्षण से शक्ति प्राप्त करके परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृति का आश्रय लेकर उसी के बल से ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं।

उद्धव जी! जो लोग तत्त्वों की संख्या सात स्वीकार करते हैं, उनके विचार से आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-ये पाँच भूत, छठा जीव और सातवाँ परमात्मा-जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत् दोनों का अधिष्ठान है-ये ही तत्त्व हैं। देह, इन्द्रिय और प्राणादि की उत्पत्ति तो पंचभूतों से ही हुई है [इसलिये वे इन्हें अलग नहीं गिनते]। जो लोग केवल छः तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि पाँच भूत हैं और छठा है परम पुरुष परमात्मा। वह परमात्मा अपने बनाये हुए पंचभूतों से युक्त होकर देह आदि की सृष्टि करता है और उनमें जीवरूप से प्रवेश करता है (इस मत के अनुसार जीव का परमात्मा में और शरीर आदि का पंचभूतों में समावेश हो जाता है)। जो लोग कारण के रूप में चार ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि आत्मा से तेज, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है और जगत् में जितने पदार्थ हैं, सब इन्हीं से उत्पन्न होते हैं। वे सभी कार्यों का इन्हीं में समावेश कर लेते हैं। जो लोग तत्त्वों की संख्या सत्रह बतलाते हैं, वे इस प्रकार गणना करते हैं-पाँच भूत, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच ज्ञानेद्रियाँ, एक मन और एक आत्मा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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