एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 23-32 का हिन्दी अनुवाद
उद्धव जी ने कहा- 'श्यामसुन्दर! यद्यपि स्वरूपतः प्रकृति और पुरुष-दोनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, तथापि वे आपस में इतने घुल-मिल गये हैं कि साधारणतः उनका भेद नहीं जान पड़ता। प्रकृति में परुष और पुरुष में प्रकृति अभिन्न-से प्रतीत होते हैं। इनकी भिन्नता स्पष्ट कैसे हो? कमलनयन श्रीकृष्ण! मेरे हृदय में इनकी भिन्नता और अभिन्नता को लेकर बहुत बड़ा सन्देह है। आप तो सर्वज्ञ हैं, अपनी युक्तियुक्त वाणी से मेरे सन्देह का निवारण कर दीजिये। भगवन्! आपकी ही कृपा से जीवों को ज्ञान होता है और आपकी माया-शक्ति से ही उनके ज्ञान का नाश होता है। अपनी आत्मस्वरूपिणी माया की विचित्र गति आप ही जानते हैं और कोई नहीं जानता। अतएव आप ही मेरा सन्देह मिटाने में समर्थ हैं।' भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- उद्धव जी! प्रकृति और पुरुष, शरीर और आत्मा-इन दोनों में अत्यन्त भेद है। इस प्राकृत जगत् में जन्म-मरण एवं वृद्धि-ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि यह गुणों के क्षोभ से ही बना है। प्रिय मित्र! मेरी माया त्रिगुणात्मिक है। वही अपने सत्त्व, रज आदि गुणों से अनेकों प्रकार की भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है। यद्यपि इसका विस्तार असीम है, फिर भी इस विकारात्मक सृष्टि को तीन भागों में बाँट सकते हैं। वे तीन भाग हैं-अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत। उदाहरणार्थ-नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म है, उसका विषयरूप अधिभूत है और नेत्र-गोलक में स्थित सूर्य देवता का अंश अधिदैव है। ये तीनों परस्पर एक-दूसरे के आश्रय से सिद्ध होते हैं और इसलिये अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत-ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। परन्तु आकाश में स्थित सूर्यमण्डल इन तीनों की अपेक्षा से मुक्त है, क्योंकि वह स्वतःसिद्ध है। इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों भेदों का मूल कारण, उनका साक्षी और उनसे परे हैं। वही अपने स्वयंसिद्ध प्रकाश से समस्त सिद्ध पदार्थों की मूलसिद्धि है। उसी के द्वारा सबका प्रकाश होता है। जिस प्रकार चक्षु के तीन भेद बताये गये, उसी प्रकार त्वचा, श्रोत, जिह्वा, नासिका और चित्त आदि के भी तीन-तीन भेद हैं।[1] प्रकृति से महत्तत्त्व बनता है और महत्तत्त्व से अहंकार। इस प्रकार यह अहंकार गुणों के क्षोभ से उत्पन्न हुआ प्रकृति का ही एक विकार है। अहंकार के तीन भेद हैं-सात्त्विक, तापस और राजस। यह अहंकार ही अज्ञान और सृष्टि की विविधता का मूल कारण है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यथा-त्वचा, स्पर्श और वायुः, श्रवण, शब्द और दिशा; जिह्वा, रस और वरुण; नासिका, गन्ध और अश्विनीकुमार; चित्त, चिन्तन का विषय और वासुदेव; मन, मन का विषय और चन्द्रमा; अहंकार, विषय और रुद्र, बुद्धि, समझने का विषय और ब्रह्मा-इन सभी त्रिविध तत्त्वों से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है।
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