श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 21 श्लोक 1-15

तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


कर्दम जी की तपस्या और भगवान् का वरदान

विदुर जी ने पूछा- भगवन्! स्वयाम्भुव मनु का वंश बड़ा आदरणीय माना गया है। उसमें मैथुन धर्म के द्वारा प्रजा की वृद्धि हुई थी। अब आप मुझे उसी की कथा सुनाइये। बह्मन्! आपने कहा था कि स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद ने सातों द्वीपों वाली पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन किया था तथा उनकी पुत्री जो देवहूति नाम से विख्यात थी, कर्दम प्रजापति को ब्याही गयी थी। देवहूति योग के लक्षण यमादि से सम्पन्न थी, उससे महायोगी कर्दम जी ने कितनी संतानें उत्पन्न कीं? वह सब प्रसंग आप मुझे सुनाइये, मुझे उसके सुनने की बड़ी इच्छा है। इसी प्रकार भगवान् रुचि और ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति ने भी मनु जी की कन्याओं का पाणिग्रहण करके उनसे किस प्रकार क्या-क्या सन्तान उत्पन्न की, वह सब चरित भी मुझे सुनाइये।

मैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! जब ब्रह्मा जी ने भगवान् कर्दम को आज्ञा दी कि तुम संतान उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हजार वर्षों तक सरस्वती नदी के तीर पर तपस्या की। वे एकाग्रचित्त से प्रेमपूर्वक पूजनोपचार द्वारा शरणागत वरदायक श्रीहरि की आराधना करने लगे। तब सत्ययुग के आरम्भ में कमलनयन भगवान् श्रीहरि ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्द ब्रह्ममयस्वरूप से मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये। भगवान् की वह भव्यमूर्ति सूर्य के समान तेजोमयी थी। वे गले में श्वेत कमल और कुमुद के फूलों की माला धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी अलकावली से सुशोभित था। वे निर्मल वस्त्र धारण किये हुए थे। सिर पर झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट, कानों में जगमगाते हुए कुण्डल और करकमलों में शंख, चक्र, गदा आदि आयुध विराजमान थे। उनके एक हाथ में क्रीड़ा के लिये श्वेत कमल सुशोभित था। प्रभु की मधुर मुस्कान भरी चितवन चित्त को चुराये लेती थी। उनके चरणकमल गरुड़ जी के कंधों पर विराजमान थे, तथा वक्षःस्थल में श्रीलक्ष्मी जी और कण्ठ में कौस्तुभ मणि सुशोभित थी। प्रभु की इस आकाशास्थित मनोहर मूर्ति का दर्शन करके कर्दम जी को बड़ा हर्ष हुआ, मानो उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं। उन्होंने सानन्दहृदय से पृथ्वी पर सिर टेककर भगवान् को साष्टांग प्रणाम किया और फिर प्रेमप्रवणचित्त से हाथ जोड़कर सुमधुर वाणी से वे उनकी स्तुति करने लगे।

कर्दम जी ने कहा- स्तुति करने योग्य परमेश्वर! आप सम्पूर्ण सत्त्वगुण के आधार हैं। योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियों में जन्म लेकर अन्त में योगस्थ होने पर आपके दर्शनों की इच्छा करते हैं; आज आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया। आपके चरणकमल भवसागर से पार जाने के लिये जहाज हैं। जिनकी बुद्धि आपकी माया से मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखों के लिये, जो नरक में भी मिल सकते हैं, उन चरणों का आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन्! आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं।

प्रभो! आप कल्पवृक्ष हैं। आपके चरण समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं। मेरा हृदय काम-कलुषित है। मैं भी अपने अनुरूप स्वभाव-वाली और गृहस्थ धर्म के पालन में सहायक शीलवती कन्या से विवाह करने के लिये आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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